माँ ब्रह्मचारिणी (Maa Brahmacharini) पूर्ण करेंगी अपने भक्तों की मनोकामना और समाप्त करेंगी उनके कष्टों को। जानियें कब और कैसे करें माँ ब्रह्मचारिणी की उपासना? साथ ही पढ़ियें माँ ब्रह्मचारिणी का स्वरूप (Maa Brahmacharini Ka Swaroop) कैसा है?, माँ ब्रह्मचारिणी की पौराणिक कथा (Maa Brahmacharini Ki Katha) और माँ ब्रह्मचारिणी के मंत्र और स्तोत्र (Brahmacharini Stotra)…
Navratri Ke Doosre Din Kare Maa Brahmacharini Ki Puja
नवरात्रि के दूसरे दिन करें माँ ब्रह्मचारिणी की पूजा
नवरात्रि के दूसरे दिन पर माँ दुर्गा के ब्रह्मचारिणी (Maa Brahmacharini) स्वरूप की पूजा का विधान हैं। ब्रह्मचारिणी शब्द संस्कृत भाषा का शब्द हैं। जिसका अर्थ होता है, ब्रह्म के समान आचरण करने वाली या दूसरे शब्दों में कहे तो जिसका आचरण ब्रह्म के समान हो।
पौराणिक मान्यता के अनुसार माँ ब्रह्मचारिणी (Maa Brahmacharini) को देवी पार्वती का अविवाहित स्वरूप माना जाता हैं। भगवान शिव को पति रूप में पाने के लिये माँ पार्वती ने कठोर तप किया था। इसलिये इन्हे तपश्चारिणी के नाम से जाना जाता हैं। माँ ब्रह्मचारिणी को उमा और अपर्णा के नाम से भी जाना जाता हैं।
माँ ब्रह्मचारिणी (Maa Brahmacharini) सदा ही अपने भक्तों की मनोकामना पूर्ण करती हैं और उनके कष्टों का नाश करती हैं। देवी दुर्गा का दूसरा स्वरूप हैं माँ ब्रह्मचारिणी, नवरात्रि के दूसरे दिन इनका पूजन किया जाता हैं। इस रूप में माँ दुर्गा अपने भक्तों को अमोघ फल प्रदान करती हैं। देवी ब्रह्मचारिणी की उपासना करने से जातक में त्याग, तप, वैराग्य, संयम और सदाचार का भाव प्रबल होता हैं। माँ ब्रह्मचारिणी की कृपादृष्टि से साधक के जीवन की समस्त परेशानियाँ समाप्त हो जाती है और वो हर स्थान पर विजयी रहता हैं।
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Devi Brahmacharini Ka Swaroop
देवी ब्रह्मचारिणी का स्वरूप
- माँ ब्रह्मचारिणी (Maa Brahmacharini) का स्वरूप अत्यधिक तेजोमय, ज्योतिर्मय और प्रेममय हैं। घोर तपस्या करने के कारण माँ के मुख पर अलौकिक तेज और कांति हैं।
- देवी ब्रह्मचारिणी (Devi Brahmacharini) बहुत शांत भाव से तप में लीन हैं।
- माँ ब्रह्मचारिणी श्वेत वस्त्र धारण किये हुये हैं।
- माँ ब्रह्मचारिणी दायें हाथ में अक्षमाला और बायें हाथ में कमण्ड़ल लिये हैं।
Maa Brahmacharini Ki Katha
माँ ब्रह्मचारिणी की पौराणिक कथा
पौराणिक कथाओं के अनुसार देवी पार्वती ने भगवान शिव को पति रूप में पाने के लिये वर्षों तक कठोर तपस्या करी थी। जब उन्होने अपनी माता मैना देवी और पिता हिमालय के समक्ष अपनी यह इच्छा प्रकट की तो उन्होने इसे स्वीकर नही किया। परंतु इससे भी देवी पार्वती का निश्चय नही बदला और उन्होने वन में जाकर कठोर तपस्या करना आरम्भ कर दिया।
भगवान शिव ने माता पार्वती के दृढ़ निश्चय की परीक्षा लेने के लिये एक साधू का रूप लिया और स्वयं की निन्दा करने लगे। यह सुनकर भी देवी पार्वती का निश्चय नही बदला। सैकड़ों वर्षों तक माँ पार्वती ने फल-फूल और वनस्पति खाकर घोर तपस्या की। उसके बाद बिल्वपत्र खाकर तप किया। भगवान शिव को प्रसन्न करने के लिये फिर देवी पार्वती ने निराहार रहकर निर्जल व्रत किये। इतने कठोर तप से उनका शरीर क्षीण हो गया था। ऐसी कठोर तपस्या के बाद भगवान शिव ने देवी पार्वती की मनोकामना पूर्ण करी और उन्हे पत्नी रूप में स्वीकर किया। देवी पार्वती द्वारा वर्षों तक पहाड़ों में कठोर तपस्या करने के कारण उन्हे ब्रह्मचारिणी की संज्ञा दी गई हैं।
Maa Brahmacharini Ke Pujan Ka Jyotishiya Mahatva
माँ ब्रह्मचारिणी के पूजन का ज्योतिषीय महत्व
ज्योतिष शास्त्रों के अनुसार देवी ब्रह्मचारिणी (Devi Brahmacharini) का पूजन करने से साधक को मंगल ग्रह की अनुकूलता प्राप्त होती हैं।
Maa Brahmacharini Ke Mantra
माँ ब्रह्मचारिणी के मंत्र
विधिपूर्वक माता की पूजा अर्चना करने के बाद इस मंत्र का पाठ करते हुये माँ ब्रह्मचारिणी (Maa Brahmacharini) का ध्यान करें।
ध्यान मंत्र
वन्दे वाञ्छितलाभाय चन्द्रार्धकृतशेखराम्।
जपमाला कमण्डलु धरा ब्रह्मचारिणी शुभाम्॥
गौरवर्णा स्वाधिष्ठानस्थिता द्वितीय दुर्गा त्रिनेत्राम्।
धवल परिधाना ब्रह्मरूपा पुष्पालङ्कार भूषिताम्॥
परम वन्दना पल्लवाधरां कान्त कपोला पीन।
पयोधराम् कमनीया लावणयं स्मेरमुखी निम्ननाभि नितम्बनीम्॥
इस मंत्र से माँ ब्रह्मचारिणी की स्तुति करें।
स्तुति मंत्र –
या देवी सर्वभूतेषु माँ ब्रह्मचारिणी रूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:।।
दधाना कर पद्माभ्याम अक्षमाला कमण्डलू।
देवी प्रसीदतु मई ब्रह्मचारिण्यनुत्तमा।।
ॐ देवी ब्रह्मचारिण्यै नमः॥
माँ ब्रह्मचारिणी स्त्रोत
तपश्चारिणी त्वंहि तापत्रय निवारणीम्।
ब्रह्मरूपधरा ब्रह्मचारिणी प्रणमाम्यहम्॥
शङ्करप्रिया त्वंहि भुक्ति-मुक्ति दायिनी।
शान्तिदा ज्ञानदा ब्रह्मचारिणी प्रणमाम्यहम्॥
माँ ब्रह्मचारिणी कवच
त्रिपुरा में हृदयम् पातु ललाटे पातु शङ्करभामिनी।
अर्पण सदापातु नेत्रो, अर्धरी च कपोलो॥
पञ्चदशी कण्ठे पातु मध्यदेशे पातु महेश्वरी॥
षोडशी सदापातु नाभो गृहो च पादयो।
अङ्ग प्रत्यङ्ग सतत पातु ब्रह्मचारिणी॥
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