धन-धान्य, सुख-शांति, सौभाग्य और संतान प्राप्ति के लिये करें भीष्म द्वादशी (Bhishma Dwadashi) का व्रत। जानिये भीष्म द्वादशी के महत्व के विषय में। भीष्म द्वादशी कब हैं? भीष्म द्वादशी व्रत एवं पूजन की विधि और साथ ही पढ़िये भीष्म द्वादशी की कथा।
Bhishma Dwadashi / Govind Dwadashi
भीष्म द्वादशी / गोविंद द्वादशी
हिंदु पंचांग के माघ मास की शुक्लपक्ष की द्वादशी तिथि को भीष्म द्वादशी (Bhishma Dwadashi) के नाम से जाना जाता हैं। भीष्म द्वादशी को गोविंद द्वादशी (Govind Dwadashi) भी कहा जाता हैं। इस दिन भगवान विष्णु के लक्ष्मीनारायण स्वरूप की पूजा किये जाने का विधान हैं। धार्मिक मान्यता के अनुसार इस व्रत का पालन करने से जातक को धन-सम्पत्ति, सुख-सौभाग्य और उत्तम संतान की प्राप्ति होती हैं।
Bhishma Dwadashi Kab Hai?
भीष्म द्वादशी कब हैं?
इस वर्ष भीष्म द्वादशी (Bhishma Dwadashi) का व्रत एवं पूजन 20 फरवरी, 2024 मंगलवार के दिन किया जायेगा।
दक्षिण भारत के कुछ राज्यों में गोविंद द्वादशी फाल्गुन मास की शुक्लपक्ष की द्वादशी के दिन मनायी जाती हैं। इसलिये वहाँ पर 21 मार्च, 2024 गुरूवार के दिन गोविंद द्वादशी का व्रत एवं पूजन किया जायेगा।
Vrat Ka Mahatva (Mahatamya)
व्रत का महत्व (महात्म्य)
भीष्म द्वादशी (Bhishma Dwadashi) जिसे हम गोविंद द्वादशी भी कहते है इसका व्रत जया एकादशी के अगले दिन द्वादशी को किया जाता है। इस दिन एकादशी के व्रत का पारण भी किया जाता हैं। किंतु इस वर्ष जया एकादशी और भीष्म द्वादशी दोनों का व्रत एक ही दिन किया जायेगा। शास्त्रों के अनुसार यह व्रत बहुत ही शुभ और उत्तम फल देने वाला हैं। इस व्रत का पालन करने से
- समस्त रोगों का नाश होता हैं और आरोग्य की प्राप्ति होती हैं।
- मनुष्य के सभी पाप नष्ट हो जाते हैं।
- मनुष्य की समस्त मनोकामनायें सिद्ध होती हैं।
- मनुष्य को जीवन में संतुष्टि प्राप्त होती हैं।
- सुख-समृद्धि में वृद्धि होती हैं।
- उत्तम संतान की प्राप्ति होती हैं।
- धन-धान्य में वृद्धि होती हैं।
- सौभाग्य में वृद्धि होती हैं।
- इस दिन पितरों के निमित्त श्राद्ध एवं तर्पण करने से उनकी आत्मा को शान्ति मिलती हैं। जातक को अपने पितरों का आशीर्वाद प्राप्त होता हैं।
- जिनकी जन्म कुण्ड़ली में पितृ-दोष हो उन्हे विशेष रूप से इस दिन अपने पितरों का श्राद्ध व तर्पण करना चाहिये, ऐसा करने पितृ दोष का निवारण होता है।
- भीष्म द्वादशी (Bhishma Dwadashi) के दिन तिलों का सेवन करने से जातक के पापों का नाश होता हैं, उसे हर कार्य में सफलता प्राप्त होती हैं और परिवार में खुशियों का वातावरण रहता हैं।
- इस दिन तिलों के दान का भी विशेष महत्व बताया गया हैं। इस दिन ब्राह्मणों को दक्षिणा के साथ तिलों का दान करने से जातक को महान पुण्य की प्राप्ति होती हैं। इस दिन तिल दान करने से जातक को अग्निष्टोम यज्ञ करने और गोदान करने के समान पुण्य प्राप्त होता हैं।
Vrat Aur Pujan Ki Vidhi
व्रत एवं पूजन की विधि
भीष्म द्वादशी (Bhishma Dwadashi) के व्रत में भगवान विष्णु के लक्ष्मीनारायण स्वरूप की पूजा किये जाने का विधान हैं। इस दिन व्रत एवं पूजन करने की विधि इस प्रकार हैं-
- भीष्म द्वादशी (Bhishma Dwadashi) के दिन प्रात:काल स्नानादि नित्य क्रिया से निवृत्त होकर स्वच्छ वस्त्र धारण करें।
- फिर पूजा स्थान पर एक चौकी बिछाकर उस पर कपड़ा बिछायें। चौकी पर एक कलश में जल भरकर स्थापित करें।
- चौकी पर भगवान लक्ष्मीनारायण की प्रतिमा या चित्र स्थापित करें और साथ ही भगवान गणेश की प्रतिमा भी स्थापित करें।
- धूप-दीप जलाकर सर्वप्रथम भगवान गणेश की पूजा करें। उन्हे जल के छींटे लगायें, रोली-चावल से तिलक करें, सिंदूर चढ़ाये, जनेऊ चढ़ाये, दूर्वा अर्पित करें। फल-फूल व नैवेद्य चढ़ाये।
- फिर भगवान लक्ष्मीनारायण की प्रतिमा को पंचामृत से स्नान करायें। मौली चढ़ाये, रोली-चावल से तिलक करें, केले के पत्ते, फल, फूल, तिल, सुपारी, तुलसी, पान एवं दुर्वा चढ़ायें।
- भोग अर्पित करें।
- फिर भीष्म द्वादशी की कथा का पाठ करें या श्रवण करें।
- फिर भगवान लक्ष्मीनारायण की आरती करें।
- पूजन पूर्ण करने के बाद सभी को चरणामृत व प्रसाद बांटें।
- तत्पश्चात ब्राह्मणों को भोजन करायें और सामर्थ्य अनुसार दक्षिणा देकर उन्हे संतुष्ट करें।
- ब्राह्मणों को भोजन कराने के बाद स्वयं भोजन करें।
- भीष्म द्वादशी (Bhishma Dwadashi) के दिन अपने पूर्वजों के निमित्त श्राद्ध व तर्पण करने से उनकी आत्मा को शांति मिलती हैं।
Bhishma Dwadashi Vrat Katha
भीष्म द्वादशी व्रत कथा
श्रीमद्भागवत पुराण में वर्णित कथा के अनुसार हस्तिनापुर के राजा शांतनु का विवाह गंगा से हुआ। विवाह के समय गंगा ने शान्तनु से एक वचन लिया था कि शांतनु उससे कभी प्रश्न नही करेंगे। यदि वो प्रश्न करेंगे तो गंगा उन्हे छोड़कर चली जायेंगी। राजा शांतनु के सात पुत्र हुये, उन सभी को गंगा ने गंगा नदी में प्रवाहित कर दिया। यह देखकर शांतनु को बहुत दुख हुआ।
जब गंगा ने आठवें पुत्र को जन्म दिया और वो उसको भी गंगा नदी में बहाने लगी तब राजा शांतनु ने उन्हे रोक दिया और उनसे ऐसा करने का कारण पूछा। तब गंगा ने उन्हे बताया कि गंगा से उत्पन्न यह आठ पुत्र पूर्वजन्म में अष्ट वसु थे। एक श्राप के कारण इन्हे धरती पर जन्म लेना पड़ा। इनके उद्धार के लिये मैंने इनकी माता होना स्वीकर किया और मैं इनको जन्म के बाद नदी में प्रवाहित करके इनको इनके श्राप से मुक्ति दिला रही थी। आपने मुझे इस आठवें पुत्र को मुक्ति दिलाने से रोक दिया। तब गंगा अपने आठवें पुत्र को लेकर चली गई।
गंगा ने अपने आठवें पुत्र का नाम देवव्रत रखा और उनको धर्म, शास्त्र और युद्ध विद्या कि शिक्षा दिलाकर शांतनु के सुपुर्द कर दिया। ऐसा योग्य व पराक्रमी पुत्र पाकर शांतनु बहुत प्रसन्न हुये। उन्होने देवव्रत को युवराज घोषित कर दिया। एक बार राजा शांतनु की भेंट सत्यवती से हुयी। सत्यवती यात्रियों को नाव में बैठाकर नदी पार कराती थी। शांतनु सत्यवती के रूप-सौंद्रर्य पर मोहित हो गये। सत्यवती से विवाह का प्रस्ताव लेकर शांतनु सत्यवती के पिता के पास गयें। सत्यवती के पिता ने विवाह के लिये एक शर्त रखी की उसकी पुत्री सत्यवती का पुत्र ही हस्तिनापुर का राजा बनें। यह सुनकर शांतनु ने इंकार कर दिया। किंतु वो सत्यवती के वियोग में दुखी रहने लगें।
अपने पिता को दुखी देखकर देवव्रत ने उनके दुख का कारण जानना चाहा। जब उन्हे अपने पिता शांतनु के सत्यवती के प्रति स्नेह और सत्यवती के पिता की शर्त का पता चला तो उन्होने अपने पिता की खुशी के लिये हस्तिनापुर पर अपना अधिकार छोड़ दिया और उन्हे वचन दिया की सत्यवती का पुत्र ही हस्तिनापुर का राजा बनेगा। इसके साथ ही सत्यवती के पिता की शंका को दूर करने के लिये आजीवन ब्रह्मचारी रहने की कठोर प्रतिज्ञा कर ली। इस प्रतिज्ञा के कारण उनका नाम भीष्म पड़ा। उनके पिता शांतनु उनकी पितृ भक्ति से इतने प्रसन्न हुये की उन्होने उन्हे इच्छा मृत्यु का आशीर्वाद दे दिया।
कालांतर में जब कौरवों और पाण्ड़वों के मध्य महाभारत का युद्ध हुआ, तब अपने पिता को दिये वचन के कारण गंगापुत्र भीष्म को कौरवों के पक्ष में युद्ध करना पड़ा। यह जानते हुये की पाण्ड़व धर्म पर चल रहे है, उन्होने अपनी प्रतिज्ञा के कारण पाण्ड़वों के विरूद्ध युद्ध किया। भीष्म बहुत ही कुशल योद्धा थे। उनके युद्ध कौशल और वीरता के चलते पाण्ड़वों का युद्ध जीतना असम्भव था। इसलिये उन्होने अपने पितामह भीष्म से उनकी मृत्यु का उपाय पूछा। तब उन्होने पाण्ड़वों को बताया कि यदि युद्ध में उनके सामने कोई स्त्री आ जाये तो शस्त्र त्याग देंगे। तब पाण्ड़व उनको अपने मार्ग से आसानी से हटा सकते हैं।
भगवान श्रीकृष्ण के सुझाव पर शिखण्ड़ी को अर्जुन के साथ रथ पर बिठाया गया। शिखंड़ी को सामने पाकर भीष्म ने शस्त्रों का त्याग कर दिया क्योकि शिखंडी पूर्व जन्म में काशी की राजकुमारी अम्बा थी। उसने भीष्म की मृत्यु का कारण बनने का वरदान भगवान शिव से प्राप्त किया था। शिखंडी के पीछे से अर्जुन ने भीष्म पर बाण चलायें। वो बाण उनके शरीर के आर-पार हो गये। इससे वो बाणों की शैया पर आ गये।
अत्यंत गम्भीर रूप से घायल होने पर भी उन्होने प्राण नही त्यागे। उन्होने प्राण त्यागने के लिये सूर्य के उत्तरायण की प्रतिक्षा की। युद्ध समाप्त होने के बाद उन्होने पाण्ड़वों को धर्म व राजनीति की शिक्षा दी। फिर सूर्य के उत्तरायण होने पर अष्टमी तिथि के दिन अपने प्राणों का त्याग किया। उनकी स्मृति में भगवान श्री कृष्ण ने द्वादशी तिथि को भीष्म द्वादशी का नाम दिया। तबसे इसे भीष्म द्वादशी (Bhishma Dwadashi) और गोविंद द्वादशी के नाम से पुकारा जाता हैं। इस व्रत को बहुत महत्वपूर्ण माना गया हैं। इस दिन व्रत एवं पूजन करने से भगवान लक्ष्मीनारायण की कृपा से जातक की सभी मनोकामनायें पूर्ण होती हैं।
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