Brihaspativar vrat katha- Second (बृहस्पतिवार व्रत की दूसरी कथा)

Brihspativaar vrat katha

बृहस्पतिवार की दूसरी कथा

एक बार देवराज इन्द्र स्वर्ग में अपने सिंहासन पर विराजमान थे। सारे देवता, ऋषि, गन्धर्व, किन्नर आदि भी उस सभा में उपस्थित थे। तभी देवगुरु बृहस्पति जी वहाँ पर आ गये तो उनके सम्मान मे सभी खड़े हो गए। किन्तु उस दिन देवराज इन्द्र अहंकार वश न तो खड़े हुए और जैसे वो पहले उनका आदर करते थे वैसा उनका आदर भी नही किया।
देवगुरु बृहस्पति जी इसे अपना अनादर समझकर वहाँ से चले गए। तब देवराज इंद्र को अपने किये पर बहुत दु:ख हुआ। उन्हे लगा उन्होने देवगुरु का अनादर कर दिया है और देवगुरु उनसे रुष्ट हो गये है। उन्हे अपनी भूल का अहसास हो गया था। देवराज ने सोचा की देवगुरु के आशीर्वाद से ही उन्हे स्वर्ग का वैभव मिला है। वो अपने क्रोध से सब नष्ट कर सकते हैं।

इसलिए उनके क्षमा माँगने का विचार कर देवराज इन्द्र उनके पास गए। देवगुरु बृहस्पति जी ने अपने योगबल से जान लिया कि देवराज इन्द्र उनसे क्षमा माँगने के लिए वहाँ आ रहे है। किंतु क्रोधवश उनसे भेंट न करने की इच्छा से देवगुरु वहाँ से अन्तर्ध्यान हो गए। जब देवराज इन्द्र को देवगुरु बृहस्पति वहाँ नही मिले तो वो निराश होकर वापस लौट गये।

यह समाचार जब दैत्यों के राजा वृषवर्मा ने सुना तो उसने दैत्यगुरु शुक्राचार्य से भेंट की और उनकी आज्ञा से इन्द्रलोक
पर आक्रमण कर दिया। देवगुरु की कृपा प्राप्त न होने के कारण देवता दैत्यों से हारने लगे। तब देवताओं ने ब्रह्मा जी को सारा वृत्तांत सुनाया और उनसे सहायता मांगी कि वो उनहे दैत्यों से प्रकार बचाये। तब ब्रह्मा जी ने उनसे कहा कि तुमसे बड़ा अपराध हुआ है जो तुमने देवगुरु को क्रोधित कर दिया। अब अगर तुम अपना कल्याण चाहते हो तो त्वष्टा
ब्राह्हमण का पुत्र विश्वरूपा जो बड़ा तपस्वी और ज्ञानी है। उसे अपना पुरोहित बनालो तभी तुम्हारा कल्याण हो सकता है।

ब्रह्मा जी के वचन सुनते ही देवराज इंद्र त्वष्टा के पास पहुँच गए और बड़े ही विनम्र भाव से त्वष्टा
से निवेदन किया कि आप हमारे पुरोहित बनकर हमारा कल्याण करें। देवराज का निवेदन सुनकर त्वष्टा ने कहा कि पुरोहित बनने से तपोबल घट जाता है परन्तु आप इतनी विनती कर रहे हो, तो मेरा पुत्र विश्वरूपा आपका पुरोहित
बनकर आपकी रक्षा करेगा। पिता की आज्ञा से विश्वरूपा ने देवताओं का पुरोहित बनकर अपने पूर्ण प्रयत्न किये। प्रभु कृपा से देवराज इन्द्र ने वृषवर्मा को युद्ध में परास्त करके अपने सिन्हासन को पुन: प्राप्त कर लिया।

त्वष्टा के पुत्र विश्वरूपा के तीन मुंह थे। एक मुंह से वह सोमपल्ली लता का रस पीते, दूसरे मुंह से मदिरा और तीसरे मुंह से अन्नादि का भोजन करते थे। देवराज इन्द्र ने कुछ दिनों उपरान्त विश्वरूपा से कहा कि मैं आपकी
सहायता से यज्ञ करना चाहता हूँ। विश्वरूपा ने आज्ञानुसार यज्ञ प्रारंभ कर गया। तब विश्वरूपा से एक दैत्य ने कहा कि तुम्हारी माता दैत्य कन्या है। इसीलिये हमारे कल्याण के निमित्त इस यज्ञ मे आप एक
आहुति दैत्यों के नाम पर भी दे दिया करेंगे तो आपकी कृपा होगी।

विश्वरूपा दैत्य की बात मानकर यज्ञ मे आहुति देते समय दैत्य का नाम धीरे से लेना शुरु कर दिया। इस कारण यज्ञ करने पर भी देवताओं के तेज में वृद्धि नही हुई। देवराज इन्द्र को जब सारा वृत्तांत पता चला तो उन्होने क्रोध मे आकर विश्वरूपा के तीनों सिर काट डाले। मदपान करने वाले मुहँ से भँवरा, सोमपल्ली का रस पीने वाले मुख से कबूतर और अन्नादि खाने वाले
मुहँ से तीतर बन गया। ब्रह्महत्या के प्रभाव से इन्द्र का स्वरूप ही बदल गया। देवताओं ने पूरे एक वर्ष तक पश्चाताप किया पर फिर भी ब्रह्महत्या के पाप के प्रभाव से छूट ने पाये। तब सभी देवताओं ने ब्रह्मा जी से प्रार्थना की कि वह
देवगुरु बृहस्पति जी को साथ लेकर उनकी सहायता करे।

तब ब्रह्महत्या के पाप के चार भाग किए। उसमें से एक भाग पृथ्वी को दिया। इसी कारण धरती कहीं
ऊँची तो, कहीं नीची और कहीं बंजर होती है। ब्रह्माजी ने पृथ्वी को यह वरदान दिया धरती में जहाँ गड्ढा होगा, वो समय आनेपर स्वत: ही भर जायेगा। दूसरा भाग वृक्षों को दिया जिस कारण उनमें से गोंद बहता है। और गूगल के अतिरिक्त सब गोंद
अशुद्ध माने जाते हैं। ब्रह्माजी ने वृक्षों को यह वरदान दिया कि ऊपर से सूखने पर भी जड़ फिर से फूट जाती है। तीसरा भाग स्त्रियों को दिया, जिस कारण स्त्रियाँ हर महीने रजस्वला होती है। प्रथम दिन वो चांडालिनी, दूसरे दिन वो ब्रह्मघातिनी और तीसरे दिन वो धोबिन के समान रहकर चौथे दिन शुद्ध होती हैं। ब्रह्माजी ने स्त्रियों को सन्तान-प्राप्ति का वरदान दिया।
चौथा भाग जल को दिया जिस कारण जल के ऊपर फेन और सिवाल आदि आ जाते हैं। ब्रह्माजी ने जल को यह वरदान दिया कि उसे जिस चीज में डाला जाएगा उसका भार बढ़ जाएगा।

देवराज इन्द्र को इस प्रकार से ब्रह्महत्या के पाप से मुक्ति मिली। जो भी मनुष्य इस कथा को पढ़ता, सुनता या सुनाता है
उसके सभी पाप देवगुरु बृहस्पति जी की कृपा से नष्ट हो जाते हैं।

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Brihaspativar Vrat Katha (बृहस्पतिवार व्रत कथा) |बृहस्पतिवार के व्रत की विधि | बृहस्पतिवार व्रत की कथा |
एक समय की बात है एक गाँव में एक साहूकार रहता था, उसके घर में किसी चीज की कोई कमी नहीं थी, परन्तु उसकी पत्नी बहुत ही कंजूस थी। वो ना तो किसी भिक्षार्थी को भिक्षा देती और ना ही किसी साधु महात्मा का सम्मान करती।

बृहस्पतिवार की आरती

जय जय आरती राम तुम्हारी। राम दयालु भक्त हितकारी॥ टेक ॥
जन हित प्रगटे हरिव्रतधारी। जन प्रह्लाद प्रतिज्ञा पारी॥
द्रुपदसुता को चीर बढ़ायो। गज के काज पयारे धायो ॥
दस सिर छेदि बीस भुज तोरे। तैंतीस कोटि देव बंदि छोरे॥
छत्र लिए सिर लक्ष्मण भ्राता। आरती करत कौशल्या माता॥
शुक शारद नारदमुनि ध्यावै । भरत शत्रुघ्न चंवर ढुरावें ॥
राम के चरण गहे महावीरा। ध्रुव प्रह्लाद बालिसुर वीरा ॥
लंका जीति अवधि हरि आए। सब सन्तन मिलि मंगल गाए॥
सिय सहित सिंहासन बैठे राम । सभी भक्तजन करें प्रणाम ॥