स्यमन्तक मणि की कथा
(Syamantak Mani Ki Katha)
श्रीमद्भागवत पुराण में वर्णित एक कथा के अनुसार सत्राजित नाम का भगवान सूर्य एक भक्त था। उसकी भक्ति से प्रसन्न होकर भगवान सूर्य ने उसे स्यमंतक मणि प्रदान करी। उस मणि से सूर्य के समान तेज प्रकाशित होता था। उस मणि को सत्राजित ने अपने घर में एक मंदिर बनवाकर उसमें स्थापित करा दिया था। उस मणि के प्रभाव से सत्राजित बहुत समृद्ध हो गया था। उस मणि की विशेषता थी कि वो प्रतिदिन आठ भार के बराबर स्वर्ण प्रदान किया करती थी। और उस मणि का जहाँ पर पूजन होता हो वहाँ अकाल, महामारी, ग्रहपीड़ा, साँप का भय, शारीरिक एवं मानसिक परेशानी और निशाचरी माया भी कुछ अशुभ नही कर सकती थी।
उस मणि को पाकर सत्राजित को बहुत अहंकार आ गया था। भगवान श्रीकृष्ण ने एक बार सत्राजित से कहा कि तुम यह मणि महाराज उग्रसेन को दे दो। वो इसका उपयोग जनसेवा के लिये करेंगे और इसकी सुरक्षा भी हो पायेगी। किंतु उसने लालच और अहंकार में आकर श्री कृष्ण के प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया।
भाद्रपद की गणेश चतुर्थी का दिन था। श्रीकृष्ण भोजन करके उठे और अनायास या कह सकते है भावी वश उस दिन उनकी दृष्टि चंद्रमा पर पड़ गयी। तभी नारद जी ने उन्हे आकर कहा कि हे प्रभु! आज के दिन चंद्रमा का दर्शन करने से आप मिथ्या कलंक के भागी होगें। उसके बाद ऐसा घटनाक्रम हुआ की भगवान को मिथ्या कलंक लग ही गया।
सत्राजित का एक भाई था उसका नाम था प्रसेनजित। वो एक दिन उस स्यमंतक मणि को गले में धारण करके जंगल में आखेट के लिये चला गया। वो घोड़े पर सवार होकर जा रहा था तभी वन में एक सिंह ने उस पर हमला कर दिया और उसे वही घोड़े सहित मार कर मणि लेकर अपनी गुफा की ओर चल दिया। वो अपनी गुफा में प्रवेश करता इससे पूर्व ही ऋक्षराज जाम्बवान् ने उसका वध करके मणि को अपने अधिकार मे कर लिया। जाम्बवान् ने वह मणि लेकर अपनी गुफा में चला गया।
जब सत्राजित का भाई प्रसेनजीत वन से वापस नही आया तो उसे बहुत चिंता हुई। वो उसे ढ़ूंढ़ने के लिये वन में गया। वहाँ जाकर उसे पता चला कि उसका भाई अब जीवित नही हैं। यह जानकर उसे बहुत शोक हुआ। उसके मन में विचार आया कि मेरा भाई मणि गले में धारण करके वन में गया था इसलिये हो सकता है श्रीकृष्ण ने मणि के लिये मेरे भाई की हत्या कर दी हो।
सत्राजित ने जब यह बात नगर के लोगों से कही तो यह बात श्रीकृष्ण तक भी पहुँच गई। इस बात को जानकर भगवान समझ गये कि यह सब चौथ के चंद्रमा को देखने का परिणाम हैं। अपने ऊपर से इस कलंक को हटाने के लिये भगवान श्रीकृष्ण ने कुछ विश्वसनीय लोगों के साथ मिलकर प्रसेनजित की खोज आरम्भ कर दी। उसे तलाशते हुये वो वन में उस स्थान पर पहुँच गये जहाँ पर सिंह ने उसको मारकर उससे मणि ले ली थी। वहाँ से उन्होने सिंह के पदचिन्हों का पीछा करना शुरू किया तो वो सिंह की गुफा के द्वार तक पहुँच गये जहाँ सिंह को मार कर जाम्बवान् ने उससे मणि प्राप्त कर ली थी।
वहाँ उन्हे भालू के पैरों कि निशान मिलें। फिर उन्होने उनका पीछा किया और वो जाम्बवान् की गुफा तक पहुँच गये। वहाँ पहुँच कर उन्होने देखा की जाम्बवान् ने वो मणि बच्चों को खेलने के लिये दे रखी हैं। जब श्रीकृष्ण और उनके साथी मणि लेने के लिये आगे बढ़े तो जाम्बवान् वहाँ आ गये। जाम्बवान् बहुत ही बलवान था। मणि के लिये दोनों में युद्ध आरम्भ हो गया। श्रीकृष्ण और जाम्बवान् का युद्ध बहुत ही भयंकर था। पूरे 21 दिनों तक उनका युद्ध चलता रहा तब जाम्बवान् का मनोबल टूटने लगा और वो समझ गये कि यह कोई साधारण मनुष्य नही हैं, बल्कि स्वयं नारायण हैं। तब जाम्बवान् ने श्रीकृष्ण के चरणों में गिरकर उनसे क्षमा माँगी और कहा कि मैं क्रोध के वशीभूत होकर आपको पहचान नही पाया। आप तो साक्षात् नारायण है, आप मुझे क्षमा कर दीजिये।
तब श्रीकृष्ण ने जाम्बवान् को कहा कि मैं यहाँ इस मणि की तलाश में आया था। क्योकि मुझपर इसको चोरी करने का कलंक लगा हैं। उस कलंक को मिटाने के लिये मुझे यह मणि चाहिये। तब जाम्बवान् ने अपनी पुत्री जाम्बवती का विवाह श्रीकृष्ण से करके उन्हे वो मणि उन्हे दे दीं।
श्रीकृष्ण जब मणि और जाम्बवती को लेकर द्वारका पहुँचे तो सब खुशी से झूम उठें। और सत्राजित को भी अपनी भूल का अहसास हुआ। उसने श्रीकृष्ण से अपनी गलती के लिये क्षमा माँगी और अपनी पुत्री सत्यभामा का विवाह भगवान श्रीकृष्ण से करने का प्रस्ताव दिया। जिसे श्रीकृष्ण ने स्वीकार कर लिया। तब सत्यभामा का विवाह श्रीकृष्ण के साथ समपन्न हुआ। तब सत्राजित ने वो मणि श्रीकृष्ण को देनी चाही परंतु श्रीकृष्ण ने मना कर दिया और कहा कि आप सूर्य के भक्त है और उन्होने यह मणि आपको प्रदान की हैं। इसे आप अपने पास ही रखियें।
इस प्रकार भगवान श्रीकृष्ण को भी चौथ का चन्द्रमा देखने के कारण मिथ्या कलंक लगा। ऐसी मान्यता है कि इस स्यमन्तक मणि की कहानी कहने या सुनने गणेश चतुर्थी पर चंद्र दर्शन करने के दोष का निवारण हो जाता हैं।