शास्त्रानुसार कुंवारी कन्या द्वारा सोलह सोमवार व्रत को श्रद्धा पूर्वक करने से जल्द ही उसे मनपसंद जीवन साथी प्राप्त होता हैं। श्रावण मास में सोलह सोमवार व्रत कथा पढ़ने और सुनने का बहुत महत्व है। सावन के सोमवार के व्रत में इसी व्रत कथा का पाठ किया जाता है।
सोलह सोमवार व्रत कथा
एक समय मृत्युलोक में भ्रमण करने की इच्छा से
महादेव जी माता पार्वती जी के साथ धरती पर आये। वहाँ से
घूमते- घूमते वे विदर्भ देश के अमरावती नामक अत्यंत सुंदर
नगर में पहुँचे। अमरावती नगर सब प्रकार के सुखों से परिपूर्ण था।
वहाँ पर राजा द्वारा का बनवाया शिवजी का एक अति सुंदर मन्दिर था।
उसमें भगवान शंकर और माँ भगवती साथ निवास करने लगे ।
एक समय माता पार्वती बोलीं- हे प्रभु! आज तो हम दोनों चौसर खेलेते है।
शिवजी अपनी प्राणप्रिया की बात मानकर चौसर खेलने लगे। उस समय मंदिर
का पुजारी मंदिर में पूजा करने को आया। माताजी ने पुजारी से पूछा कि
पुजारी जी बताओ, इस बाजी में हम दोनों में से कौन जीतेगा?
पुजारी ने बिना विचारें ही बोल दिया कि महादेवजी जीतेंगे। कुछ समय पश्चात
बाजी समाप्त हुई और उसमे पार्वती जी की जीत हुई। अब पार्वती जी
ब्राह्मण को असत्य बोलने के कारण श्राप देने लगी।
तब महादेव जी ने पार्वती जी को
समझाया किन्तु उन्होंने ब्राह्मण को श्राप देकर कोढ़ी बना दिया।
पार्वती जी के श्राप के कारण वश पुजारी को कोढ हो गया।
इस वजह से पुजारी अनेक प्रकार के दुखी झेलने लगा । इस
प्रकार कष्ट भोगते हुए बहुत दिन निकल गए तब देवलोक से कुछ अपसरायें
शिवजी की पूजा करने उसी मंदिर में आयी और पुजारी के
कष्ट को देखकर बहुत दुखी हुई और बड़े दयाभाव से उससे कारण पूछने
लगीं। पुजारी ने सब बातें उनसे कह दीं। अप्सरायें बोलीं-हे पुजारी!
तुम दुखी मत हो। भगवान शिवजी सबके कष्ट दूर करते है
तुम्हारे कष्टों को भी करेंगे।
तब उन्होने पुजारी को उत्तम सोलह सोमवार
के व्रत के विषय मे बताया और कहा कि तुम इस व्रत को भक्तिभाव से करो।
पुजारी ने अप्सराओं से सोलह सोमवार व्रत की विधि पूछी ।
अप्सरायें बोलीं – सोमवार के दिन भक्ति के साथ व्रत करे,
स्वच्छ वस्त्र पहने, आधा सेर गेहूँ का आटा ले और उसके तीन
भाग करे और घी, गुड़, दीप, नैवेद्य, पूंगीफल, बेलपत्र, जनेऊ जोड़ा,
चन्दन, अक्षत, पुष्पादि के द्वारा प्रदोष काल में भगवान शंकर का
विधि विधान से पूजन करे।
उसके पश्चात तीन भागों में से एक भाग
शिवजी को अर्पित करे। बचे हुये दो को शिवजी का प्रसाद मानकर
उपस्थित लोगों में बाँट दे और स्वयं भी प्रसाद ग्रहण करे। इस विधि से
सोलह सोमवार का व्रत करे। अंत में सत्रहवें सोमवार के दिन पाव सेर पवित्र गेहूँ
आटे की बाटी बनाकर, घी और गुड़ मिलाकर चूरमा बनावे
और शिवजी को भोग लगाकर उपस्थित भक्तों में बाँट दे। बाद में स्वयं
परिवार के साथ प्रसाद ग्रहण करे। भगवान शिवजी की कृपा से आपका मनोरथ
सिद्ध हो जायेगा। ऐसा कहकर अप्सरायें तो स्वर्ग को चली गयीं।
ब्राह्मण
ने उनके बताये अनुसार विधि विधान से सोलह सोमवार का व्रत
किया। भगवान शिवजी की कृपा से वह पुजारी रोगमुक्त होकर आनंद
से जीवन जीने लगा। कुछ समय पश्चात शिवजी और पार्वती जी
उस मंदिर में पधारे तो ब्राह्मण को निरोगी देख पार्वती जी ने ब्राह्मण से
पूछा की तुम रोगमुक्त कैसे हुए? तब ब्राह्मण ने सोलह सोमवार व्रत के विषय
मे पार्वती जी को सब बता दिया।
इससे पार्वती जी बहुत प्रसन्न हुई और ब्राह्मण से व्रत की विधि जानकर व्रत
करने को उदृत हुई। व्रत करने के पश्चात उनकी मनोकामना सिद्ध हुई और उनके
रूठे हुए पुत्र कार्तिकेय माता के आज्ञाकारी बनगये। किन्तु कार्तिकेय जी
को अपने विचारो के परिवर्तन का रहस्य जानने की जिज्ञासा हुई और वह
माता से बोले – हे माते! आपने ऐसा कौन-सा उपाय किया
जिससे मेरा मन आपकी ओर समर्पित हुआ ? तब पार्वती जी ने उन्हे
सोलह सोमवार व्रत के विषय मे बताया।
स्वामी कार्तिकेय ने भी
इस ब्रत को करने की इच्छा प्रकट की और बताया की उनका ब्राह्मण मित्र दु:खी
होकर परदेश गया है। उनकी उससे मिलने की इच्छा है।
कार्तिकेयजी ने भी इस व्रत को किया और उनका प्रिय मित्र उन्हे मिल
गया। मित्र ने जब इस आकस्मिक मिलन का भेद कार्तिकेयजी से पूछा
तब उन्होने मित्र को बताया कि मैने तुमसे मिलने की इच्छा से सोलह
सोमवार का व्रत किया था। कार्तिकेयजी के ब्राह्मण मित्र की
विवाह की इच्छा थी। कार्तिकेयजी से व्रत की विधि पूछी और
यथाविधि उस व्रत को किया।
वह किसी कार्यवश परदेश गया तो
वहाँ के राजा की कन्या का स्वयंवर था । राजा का प्रण था कि जिस
युवक के गले में सब प्रकार से सजी हुई हथिनी माला डालेगी मैं उसी
के साथ अपनी पुत्री का विवाह करुगाँ। व्रत के प्रभाव से और शिवजी की कृपा
से ब्राहामण भी स्वयंवर देखने राजसभा में पहुँच गया। निर्धारित समय पर हथिनी आई
और उसने जयमाला उस ब्राह्मण के गले में ही डाल दी। राजा ने प्रण के
अनुसार बड़ी थूमधाम से अपनी पुत्री का विवाह उस ब्राह्मण युवक से कर
दिया और ब्राह्मण को अथाह धन देकर सम्मान के साथ विदा किया।
वह ब्राह्मण सुंदर राजकन्या को पाकर खुशी से जीवन व्यतीत
करने लगा।
एक दिन राजकन्या ने अपने पति से पूछा – हे
स्वामी! आपके ऐसे कौन से पुण्य कर्म थे जिसके प्रभाव से
हथिनी ने सब राजकुमारों को छोड़कर आपके गले मे वरमाला डाली? ब्राह्मण
ने उत्तर दिया – हे प्रिये! मैंने अपने मित्र कार्तिकेय जी के वचनानुसार
सोलह सोमवार का व्रत किया था उसी के प्रभाव से मुझे तुम्हारी
प्राप्ति हई। व्रत की महिमा को सुनकर उस राजकन्या को बहुत
आश्चर्य हुआ और उसने भी पुत्र की कामना करके व्रत शुरु कर दिये।
शिवजी की कृपा से उसे एक अत्यंत रूपवान, सुशील, धर्मात्मा और विद्वान
पुत्र प्राप्त हुआ। उस देवपुत्र को पाकर दोनों माता-पिता बहुत खुश हुए और
उसका पालन पोषण अच्छे से करने लगे। धीरे- धीरे पुत्र समझदार हुआ तो
एक दिन उसने अपनी माता से प्रश्न किया कि हे माँ! आपने मुझ जैसा पुत्र प्राप्त
करने के लिये कौन-सा तप किया था? माता ने अपने पुत्र को
सोलह सोमवार व्रत के महातम के विषय मे बताया और उसकी विधि
भी अपने पुत्र को बता दी।
पुत्र ने भी इस व्रत को राज्याधिकार पाने की
इच्छा से हर सोमवार को यथाविधि करना शुरू कर दिया। इस व्रत के प्रभाव
से एक वृद्ध राजा के दूतों ने आकर उसका वरण एक राजकन्या के लिए
किया। राजा को अपनी पुत्री का विवाह ऐसे सर्वगुण सम्पन्न ब्राह्मण
युवक के साथ करके बहुत आन्नद हुआ। वृद्ध राजा के मरणोपरांत
इसी ब्राह्मण युवक को राजगद्दी पर बैठाया गया।
राज्य का अधिकारी होकर भी वह
सोलह सोमवार के व्रत को करता रहा। और जब सत्रहवाँ सोमवार आया तो
उसने अपनी पत्नी से सब पूजन सामग्री लेकर शिवालय में चलने का आग्रह किया।
किन्तु उस राजकन्या ने उसकी आज्ञा की परवाह न करते हुए दास-दासियों के
हाथ सभी सामग्री शिवालय भिजवा दीं और स्वयं नहीं गई। राजा ने शिवजी का
पूजन समाप्त किया, उसके पश्चात एक आकाशवाणी हुई की
हे राजा ! तू अपनी इस रानी को राजमहल से निकाल दे अन्यथा
तेरा सर्वनाश कर देगी।
आकाशवाणी सुनकर राजा को बहुत आश्चर्य हुआ
और उसने तत्काल ही अपने सभासदों को बुलाकर उनसे मंत्रणा की। और उन्हे
शिवजी की आकाशवाणी के विषय मे बताया। सभी मंत्री बड़े विस्मय और दुःख से
भर गए क्योंकि जिस कन्या के कारण उस युवक को राज्य मिला वही
उसे राज्य से निष्कासित करे, यह कैसे हो सकता है? अंत में राजा ने
उसे नगर से निकाल दिया। रानी दुःखी हदय से भाग्य को कोसती हुई
नगर के बाहर चली गई। फटे वस्त्र पहने, भूख – प्यासी दुखी धीरे-धीरे चलकर
दूसरे नगर में पहुँच गई।
वहाँ उसे एक बुढिया मिली जो सूत कातकर बेचने को जाती थी।
रानी की ऐसी दशा को देखकर वह बोली- मैं वृद्ध हूँ ! तू मेरा सूत बिकवा दे।
बुढिया की बात सुन रानी ने बुढ़िया के सिर से सूत की गठरी लेकर
अपने सिर पर रख ली। तभी आँधी चली और बुढ़िया का सारा सूत
पोटली सहित उड़ गया। बेचारी बुढ़िया बहुत पछताई और उसने रानी को
अपने से दूर कर दिया। उसके बाद रानी एक तेली के घर पहुँची तो तेली
के सारे मटके शिवजी के प्रकोप से टूट गए।
ऐसी दशा देख उस
तेली ने भी रानी को अपने घर से निकाल दिया। रानी अत्यंत दुःख पाती हुई
नदी के किनारे पहुँची नदी का सारा पानी सूख गया। उसके बाद रानी एक जंगल में
गई, वहाँ उसे सरोवर दिखा तो वह उसमे उतरकर पानी पीने के लिये गई।
उसका स्पर्श पाते ही सरोवर का जल असंख्य कीड़ों से युक्त होकर दूषित हो गया।
रानी अपने भाग्य को कोसते हुए उस जल को पीकर के एक पेड़ की शीतल छाया
में विश्राम करने गई, पेड़ के नीचे जाते ही उस पेड़ के सारे पत्ते तत्काल ही
झड गए।
वन तथा सरोवर के जल की ऐसी दशा देखकर एक ग्वाले ने
जंगल में स्थित मंदिर के पुजारी से कही। पुजारी जी के आदेशा पर ग्वाला रानी
को उनके पास ले गया। उस रानी के मुख की कांति व शोभा को देख पुजारी जी
जान गए कि यह अवश्य ही यह कोई कुलीन नारी है। पर भाग्यवश इसकी ऐसी
हालत हो गई है। पुजारी जी ने रानी के प्रति दया भाव रखते हुए
कहा – पुत्री! तुम मेरी पुत्री के समान हो। तुम मेरे आश्रम में ही
रहो। तुमको किसी प्रकार का कष्ट नहीं होगा। पुजारी जी के ऐसे
वचन सुनकर रानी को तसल्ली हुई और वो आश्रम में ही रहने लगी।
किन्तु आश्रम में भी रानी जो भोजन बनाती उसमें कीड़े पड़ जाते, पानी भरके
लाती तो उसमें भी कीड़े पड़ जाते। तब पुजारी जी बोले हे बेटी! तुझ पर
किसी देवता का कोप है, इसीलिये तेरी ऐसी दशा हुई है?
पुजारी की बात सुनकर रानी ने शिवजी की पूजा न करने जाने
की कहानी सुनाई। पुजारी जी ने शिवजी की अनेक प्रकार से स्तुति करते हुए
रानी से कहा बेटी! तुम सभी इच्छओं को पूर्ण करने वाला सोलह
सोमवार का व्रत को करो। उसी के प्रभाव से तुम्हारे कष्ट दूर हो सकते है।
रानी ने सोलह सोमवार व्रत को विधिवत् रूप से सम्पन्न किया और सत्रहवें
सोमवार को ही पूजन के प्रभाव से राजा के हृदय में रानी को ढूंढने का
विचार आया। राजा ने रानी को तलाश करने के लिये चारों दिशाओं
में दूत भेजे। दूत तलाश करते हुए पुजारी जी के आश्रम में पहुँच गये और रानी
को पहचान कर पुजारी जी से रानी को साथ लेजाने की मांग करने लगे,
परंतु पुजारी ने उनसे मनाकर दिया। दूत लौट कर राजा के पास आये और
रानी का पता बताया।
राजा स्वयं पुजारी के आश्रम में गए और पुजारी
को सारा वृतांत बताया कि वह मेरी पत्नी हैं और शिवजी के कोप
से मैंने उसका त्याग किया था। पर अब शिवजी का कोप शांत हो
गया है, इसलिए मैं उन्हें लेने आया हूँ। आप उन्हें मेरे साथ चलने
की आज्ञा दीजिए। पुजारी जी ने राजा के वचन सुनकर रानी को राजा के साथ
जाने की आज्ञा दे दी। रानी प्रसन्नता होकर राजा के साथ महल में आई।
नगर में उनका बहुत अच्छा स्वागत हुआ।
पंडितों ने वैदिक मंत्रोंच्चार के
साथ रानी का महल मे प्रवेश कराया। रानी ने पुनः अपनी
राजधानी में प्रवेश किया। राजा ने ब्राह्मणों को दान देकर संतुष्ट किया।
याचकों को भी धन-धान्य आदि देकर संतुष्ट किया। इस प्रकार से राजा पर
शिवजी की कृपा हुई और रानी के साथ अनेक तरह से सुख भोग करते हुए
सोमवार व्रत करने लगे। विधि विधान से शिव जी का पूजन करते हुए
इस लोक में सुख भोगने के बाद शिवपुरी को चले गये।
इस प्रकार जो मनुष्य मन,
कर्म, वचन से भक्ति के साथ सोलह सोमवार का व्रत पूजन विधिवत् करता है
वह इस लोक में सुख भोगकर अंत में शिवपुरी को प्राप्त होता है।
यह व्रत सब मनोरधों को सिद्ध करने वाला है।