Rin Mukti Sukta: ऋण से मुक्ति पाने के लिये पढ़ियें ऋणमुक्ति सूक्त

Rin Mukti Sukta path; Image of Rin Mukti Sukta;

नियमित रूप से ऋणमुक्ति सूक्त (Rin Mukti Sukta) पाठ करने से साधक को ऋण से मुक्ति मिल जाती है। अथर्ववेद के छठवें कांड के 117, 118 और 119 इन तीन सूक्तों के इन सम्पूर्ण मंत्रों का नियम से पूरे तीन माह तक हर दिन पाठ करने से जातक ऋणमुक्त हो जाता है। जानियें कब और कैसे करें ऋणमुक्ति सूक्तपाठ (Rin Mukti Sukta) ? पढ़ियें ऋणमुक्ति सूक्त…

How And When To Recite Rinmukti Sukta?
ऋणमुक्ति सूक्तपाठ कब और कैसे करें?

  • प्रात:काल स्नानादि नित्य क्रिया से निवृत्त होकर स्वच्छ वस्त्र धारण करें। फिर पूजा स्थान पर पूर्व की ओर मुख करके पर आसन पर बैठ जाये।
  • धूप-दीप प्रज्वलित करें।
  • अपने ईष्ट देवता का ध्यान करें।
  • फिर पूर्ण श्रद्धा भक्ति के साथ ऋणमुक्ति सूक्त (Rin Mukti Sukta) का शुद्ध उच्चारण से पाठ करें।
  • इसके बाद अपनी त्रुटियों, गलतियों और अपराधों के ईश्वर से क्षमा माँगें। फिर उनसे अपनी मनोकामना पूर्ण करने की प्रार्थना करें।

ऋणमुक्ति सूक्तपाठ (Rin Mukti Sukta) का नियमित रूप से तीन माह तक पाठ करने से जातक के ऋण मुक्त होने की सम्भावना प्रबल होती है।

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Rin Mukti Sukta Path Lyrics
ऋणमुक्ति सूक्तपाठ

अपमित्यमप्रतीत्तं यदस्मि यमस्य येन बलिना चरामि।
इदं तदग्ने अनृणो भवामि त्वं पाशान् विचृतं वेत्थ सर्वान् ।।

इहैव सन्तः प्रति दद्म एनज्जीवा जीवेभ्यो नि हराम एनत् ।
अपमित्य धान्यं यज्जघसाहमिदं तदग्ने अनृणो भवामि ।।

अनृणा, अस्मिन्ननृणाः परिस्मन् तृतीये लोके अनृणाः स्याम ।
ये देवयानाः पितृयाणाश्च लोकाः सर्वान् पथो अनृणा आ क्षियेम् ।।

यद्धस्ताभ्यां चक्रम किल्बिषाण्यक्षाणां गन्तुमुपलिप्समानाः ।
उग्रंपश्ये उग्रजितौ तदद्याप्सरसावनु दत्तामृणं नः ।।

उग्रंपश्ये राष्ट्रभृत् किल्बिपाणि यदक्षवृत्तमनु दत्तं न एतत् ।
ऋणान्नो नर्णमेर्त्समानो यमस्य लोके अधिरज्जुरायत् ।।

यस्मा ऋणं यस्य जायामुपैमि यं याचमानो अभ्यैमि देवाः ।
वे वाचं वादिषुतरां मद्देवपत्नी अप्सरसावधीतम् ।।

यददीव्यन्नृणमहं कृणोम्यदास्यन्नग्न उत संगृणामि ।
वैश्वानरो नो अधिपा वसिष्ठ उदिन्नयाति सुकृतस्य लोकम् ।।

वैश्वानराय प्रति वेदयामि यघृणं संगरो देवतासु ।
स एतान् पाशान् विचृतं वेद सर्वानथ पक्वेन सह संभवेम ।।

वैश्वानरः पविता मा पुनातु यत् संगरमभिधावाम्याशाम् ।
अनाजानन् मनसा याचमानो यत् तत्रैनो अप तत् सुवामि ।।

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