भार्गव ऋषि द्वारा रचित श्री लक्ष्मी हृदयम स्तोत्रम् (Lakshmi Hrudayam Stotram) बहुत ही चमत्कारिक स्तोत्र है। इसका पाठ करने का एक विशेष नियम है। इस स्तोत्र का विधि अनुसार पाठ करने से निर्धन मनुष्य भी धनवान हो जाता है। समस्त मनोकामनाओं को पूर्ण करने वाला यह स्तोत्र बहुत ही दुर्लभ है। पढ़ियें लक्ष्मी हृदय स्तोत्रम् (Lakshmi Hrudayam Stotram) और साथ में जानिये पाठ करने की विधि और इसके लाभ…
How and When To Recite Shree Lakshmi Hrudayam Stotram?
श्री लक्ष्मी हृदयम स्तोत्रम् का पाठ कब और कैसे करें?
श्री लक्ष्मी हृदयम स्तोत्रम् (Lakshmi Hrudayam Stotram) एक अद्वितीय स्तोत्र है। यह स्तोत्रम् श्री नारायण हृदयम् स्तोत्रम् (Narayana Hrudaya Stotram) से जुड़ा हुआ है। यह स्तोत्र अथर्व रहस्यम् में मिलते है। इनकी रचना ऋषि भार्गव के द्वारा की गई है। श्री नारायण हृदयम स्तोत्रम् के अंतिम भाग में इस बात का उल्लेख आता है कि पहले नारायण हृदयम् स्तोत्रम् (Narayana Hrudaya Stotram) का पाठ किया जाता है फिर उसके पश्चात् श्री लक्ष्मी हृदयम स्तोत्रम् (Lakshmi Hrudayam Stotram) का पाठ किया जाता है। यह दोनो स्तोत्रम् एक साथ पढ़े जाते है। इन्हे पृथक मानकर अलग से नहीं पढ़ा जाना चाहिए। इन दोनो का एक साथ पाठ किया जाना इस तथ्य को बल देता है कि भगवान नारायण और देवी लक्ष्मी वास्तव में एक ही हैं। हालाँकि दो अलग-अलग देवताओं के रूप में इनकी बात की जाती है।
- दोनों स्तोत्रों का पाठ प्रात:काल या रात्रि के समय कभी भी किया जा सकता है। स्नानादि नित्य क्रिया से निवृत्त होकर स्वच्छ वस्त्र धारण करें।
- उसके बाद पूजा स्थान पर बैठकर लक्ष्मी नारायण की प्रतिमा या चित्र के समक्ष धूप-दीप प्रज्वलित करें।
- हल्दी-रोली-चावल से तिलक करें। पुष्प और सुगन्ध अर्पित करें। फल और भोग निवेदन करें।
- फिर नारायण हृदयम् स्तोत्रम् (Narayana Hrudaya Stotram) का पाठ करें। फिर उसके बाद श्री लक्ष्मी हृदयम् स्तोत्रम (Lakshmi Hrudayam Stotram) का पाठ करें। श्री लक्ष्मी हृदयम् स्तोत्रम (Lakshmi Hrudayam Stotram) के बाद फिर से नारायण हृदयम् स्तोत्रम् का पाठ करें।
- विधि अनुसार पाठ करने के बाद अपनी गलतियों के लिये क्षमा याचना करें। और देवी लक्ष्मी से अपना मनोरथ कहें।
- इस स्तोत्र के पाठ को गुप्त रखें। इसकी चर्चा किसी से ना करें। यह एक गुप्त स्तोत्र है।
नोट: आश्विन मास में, शुक्लपक्ष में, पूर्णिमा पर, धन तेरस और दीपावली पर इन दोनों स्तोत्रम् का विधि अनुसार पाठ करने से इसका फल कई गुणा प्राप्त होता है। उस पर स्वर्ण (धन) और सुखों की वर्षा होती है।
Benefits of Reading Lakshmi Hrudaya Stotram
श्री लक्ष्मी हृदयम स्तोत्रम् के लाभ
विधि अनुसार इस स्तोत्र का पाठ करने से साधक को देवी लक्ष्मी और भगवान नारायण दोनों का आशीर्वाद प्राप्त होता है। देवी लक्ष्मी अपने पुत्र के समान उसका ख्याल रखती है। यह बहुत ही दुर्लभ और गुप्त स्तोत्र है। इसका प्रभाव बहुत ही चमत्कारिक है। इस स्तोत्र का पाठ करने से
- धन – धान्य में वृद्धि होती है।
- समस्त कामनाओं की पूर्ति होती है।
- दुख- दरिद्रता का नाश होता है।
- निर्धन से निर्धन मनुष्य भी धनवान हो जाता है।
- उत्तम संतान की प्राप्ति होती है। वंश की वृद्धि होती है।
- राजाओं के समान उसका वैभव होता है।
- वाणी की सत्यता प्राप्त होती है।
- यश और बल में वृद्धि होती है।
- कार्य क्षेत्र में निरंतर प्रगति होती है।
- हर प्रकार के भय से जातक मुक्त हो जाता है।
- सभी आदि-व्याधियों से रक्षा होती है।
- सौभाग्य में वृद्धि होती है।
- जीवन में सुख शांति आती है।
- साधक इस संसार के सभी सुखों को भोगकर मरणोपरांत मोक्ष को प्राप्त होता है।
Shree Lakshmi Hrudayam Stotram Lyrics
श्री लक्ष्मी हृदय स्तोत्रम्
। श्रीगणेशाय नमः ।
। हरिः ॐ ।
॥ ॐ तत्सत् ॥
। अथ स्तोत्रम् ।
अस्य श्री आद्यादि श्रीमहालक्ष्मी-हृदय-स्तोत्र-महामन्त्रस्य भार्गव ऋषिः(शिरसि),
अनुष्टुपादि नानाछन्दांसि (मुखे), आद्यादि-श्रीमहालक्ष्मी सहित नारायणो देवता (हृदये)॥
। ॐ बीजं, ह्रीं शक्तिः, ऐं कीलकम् ।
आद्यादि-श्रीमहालक्ष्मी-प्रसादसिद्ध्यर्थं जपे विनियोगः ॥
ॐ ॥ आद्यादि-श्रीमहालक्ष्मी देवतयै नमः'' हृदये,
श्रीं बीजायै नमः” गुह्ये,ह्रीं शक्त्यै नमः'' पादयोः,
ऐं बलायै नमः” मूर्धादि-पाद-पर्यन्तं विन्यसेत् ॥
ॐ श्रीं ह्रीं ऐं करतल-करपार्श्वयोः, श्रीं अङ्गुष्ठाभ्यां नमः,
ह्रीं तर्जनीभ्यां नमः, ऐं मध्यमाभ्यां नमः, श्रीं अनामिकाभ्यां नमः,
ह्रीं कनिष्टिकाभ्यां नमः, ऐं करतल करपृष्ठाभ्यां नमः ॥
ॐ हृदयाय नमः, ह्रीं शिरसे स्वाहा, ऐं शिखायै वषट्,
श्रीं कवचाय हुम्, ह्रीं नेत्राभ्यां वौषट्, भूर्भुवस्सुवरोमिति दिग्बन्धः ॥
॥ अथ ध्यानम् ॥
हस्तद्वयेन कमले धारयन्तीं स्वलीलया ॥
हार-नूपुर-संयुक्तां महालक्ष्मीं विचिन्तयेत् ॥
कौशेय-पीतवसनामरविन्दनेत्राम्
पद्मद्वयाभय-वरोद्यत-पद्महस्ताम् ।
उद्यच्छतार्क-सदृशां परमाङ्क-संस्थां
ध्यायेत् विधीशनत-पादयुगां जनित्रीम् ॥
॥श्रीलक्ष्मी-कमलधारिण्यै सिंहवाहिन्यै स्वाहा ॥
पीतवस्त्रां सुवर्णाङ्गीं पद्महस्त-द्वयान्विताम् ।
लक्ष्मीं ध्यात्वेति मन्त्रेण स भवेत् पृथिवीपतिः ॥
मातुलङ्ग-गदाखेटे पाणौ पात्रञ्च बिभ्रती ।
वागलिङ्गञ्च मानञ्च बिभ्रती नृपमूर्धनि ॥
। ॐ श्रीं ह्रीं ऐम् ।
वन्दे लक्ष्मीं परशिवमयीं शुद्धजाम्बूनदाभां
तेजोरूपां कनक-वसनां सर्वभूषोज्ज्वलाङ्गीम् ।
बीजापूरं कनक-कलशं हेमपद्मं दधानाम्
आद्यां शक्तिं सकलजननीं विष्णु-वामाङ्कसंस्थाम् ॥ १॥
श्रीमत्सौभाग्यजननीं स्तौमि लक्ष्मीं सनातनीम् ।
सर्वकाम-फलावाप्ति-साधनैक-सुखावहाम् ॥ २॥
स्मरामि नित्यं देवेशि त्वया प्रेरितमानसः ।
त्वदाज्ञां शिरसा धृत्वा भजामि परमेश्वरीम् ॥ ३॥
समस्त-सम्पत्सुखदां महाश्रियं
समस्त-कल्याणकरीं महाश्रियम् ।
समस्त-सौभाग्यकरीं महाश्रियं
भजाम्यहं ज्ञानकरीं महाश्रियम् ॥ ४॥
विज्ञानसम्पत्सुखदां महाश्रियं
विचित्र-वाग्भूतिकरीं मनोहराम् ।
अनन्त-सौभाग्य-सुखप्रदायिनीं
नमाम्यहं भूतिकरीं हरिप्रियाम् ॥ ५॥
समस्त-भूतान्तरसंस्थिता त्वं
समस्त-भक्तेश्श्वरि विश्वरूपे ।
तन्नास्ति यत्त्वद्व्यतिरिक्तवस्तु
त्वत्पादपद्मं प्रणमाम्यहं श्रीः ॥ ६॥
दारिद्र्य-दुःखौघ-तमोऽपहन्त्रि त्वत्-पादपद्मं मयि सन्निधत्स्व ।
दीनार्ति-विच्छेदन-हेतुभूतैः कृपाकटाक्षैरभिषिञ्च मां श्रीः ॥ ७॥
विष्णु-स्तुतिपरां लक्ष्मीं स्वर्णवर्णां स्तुति-प्रियाम् ।
वरदाभयदां देवीं वन्दे त्वां कमलेक्षणे ॥ ८॥
अम्ब प्रसीद करुणा-परिपूर्ण-दृष्ट्या
मां त्वत्कृपाद्रविणगेहमिमं कुरुष्व ।
आलोकय प्रणत-हृद्गत-शोकहन्त्रि
त्वत्पाद-पद्मयुगलं प्रणमाम्यहं श्रीः ॥ ९॥
शान्त्यै नमोऽस्तु शरणागत-रक्षणायै
कान्त्यै नमोऽस्तु कमनीय-गुणाश्रयायै ।
क्षान्त्यै नमोऽस्तु दुरितक्षय-कारणायै
धात्र्यै नमोऽस्तु धन-धान्य-समृद्धिदायै ॥ १०॥
शक्त्यै नमोऽस्तु शशिशेखर-संस्थितायै
रत्यै नमोऽस्तु रजनीकर-सोदरायै ।
भक्त्यै नमोऽस्तु भवसागर-तारकायै
मत्यै नमोऽस्तु मधुसूदन-वल्लभायै ॥ ११॥
लक्ष्म्यै नमोऽस्तु शुभ-लक्षण-लक्षितायै
सिद्ध्यै नमोऽस्तु सुर-सिद्ध-सुपूजितायै ।
धृत्यै नमोऽस्तु मम दुर्गति-भञ्जनायै
गत्यै नमोऽस्तु वरसद्गति-दायकायै ॥ १२॥
देव्यै नमोऽस्तु दिवि देवगणार्चितायै
भूत्यै नमोऽस्तु भुवनार्ति-विनाशनायै ।
शान्त्यै नमोऽस्तु धरणीधर-वल्लभायै
पुष्ट्यै नमोऽस्तु पुरुषोत्तम-वल्लभायै ॥ १३॥
सुतीव्र-दारिद्र्य-तमोऽपहन्त्र्यै नमोऽस्तु ते सर्व-भयापहन्त्र्यै ।
श्रीविष्णु-वक्षःस्थल-संस्थितायै नमो नमः सर्व-विभूति-दायै ॥ १४॥
जयतु जयतु लक्ष्मीः लक्षणालङ्कृताङ्गी
जयतु जयतु पद्मा पद्मसद्माभिवन्द्या ।
जयतु जयतु विद्या विष्णु-वामाङ्क-संस्था
जयतु जयतु सम्यक् सर्व-सम्पत्करी श्रीः ॥ १५॥
जयतु जयतु देवी देवसङ्घाभिपूज्या
जयतु जयतु भद्रा भार्गवी भाग्यरूपा ।
जयतु जयतु नित्या निर्मलज्ञानवेद्या
जयतु जयतु सत्या सर्वभूतान्तरस्था ॥ १६॥
जयतु जयतु रम्या रत्नगर्भान्तरस्था
जयतु जयतु शुद्धा शुद्धजाम्बूनदाभा ।
जयतु जयतु कान्ता कान्तिमद्भासिताङ्गी
जयतु जयतु शान्ता शीघ्रमागच्छ सौम्ये ॥ १७॥
यस्याः कलायाः कमलोद्भवाद्या रुद्राश्च शक्रप्रमुखाश्च देवाः ।
जीवन्ति सर्वेऽपि सशक्तयस्ते प्रभुत्वमाप्ताः परमायुषस्ते ॥ १८॥
॥ मुखबीजम् ॥ ॐ-ह्रां-ह्रीं-अं-आं-यं-दुं-लं-वम् ॥
लिलेख निटिले विधिर्मम लिपिं विसृज्यान्तरं
त्वया विलिखितव्यमेतदिति तत्फलप्राप्तये ।
तदन्तिकफलस्फुटं कमलवासिनि श्रीरिमां
समर्पय स्वमुद्रिकां सकलभाग्यसंसूचिकाम् ॥ १९॥
॥ पादबीजम् ॥ ॐ-अं-आं-ईं-एं-ऐं-कं-लं-रं ॥
कलया ते यथा देवि जीवन्ति सचराचराः ।
तथा सम्पत्करी लक्ष्मि सर्वदा सम्प्रसीद मे ॥ २०॥
यथा विष्णुर्ध्रुवं नित्यं स्वकलां संन्यवेशयत् ।
तथैव स्वकलां लक्ष्मि मयि सम्यक् समर्पय ॥ २१॥
सर्वसौख्यप्रदे देवि भक्तानामभयप्रदे ।
अचलां कुरु यत्नेन कलां मयि निवेशिताम् ॥ २२॥
मुदास्तां मत्फाले परमपदलक्ष्मीः स्फुटकला
सदा वैकुण्ठश्रीर्निवसतु कला मे नयनयोः ।
वसेत्सत्ये लोके मम वचसि लक्ष्मीर्वरकला
श्रियश्वेतद्वीपे निवसतु कला मे स्व-करयोः ॥ २३॥
॥ नेत्रबीजम् ॥ ॐ-घ्रां-घ्रीं-घ्रें-घ्रैं-घ्रों-घ्रौं-घ्रं-घ्रः ॥
तावन्नित्यं ममाङ्गेषु क्षीराब्धौ श्रीकला वसेत् ।
सूर्याचन्द्रमसौ यावद्यावल्लक्ष्मीपतिः श्रियौ ॥ २४॥
सर्वमङ्गलसम्पूर्णा सर्वैश्वर्यसमन्विता ।
आद्याऽऽदिश्रीर्महालक्ष्मीस्त्वत्कला मयि तिष्ठतु ॥ २५॥
अज्ञानतिमिरं हन्तुं शुद्धज्ञानप्रकाशिका ।
सर्वैश्वर्यप्रदा मेऽस्तु त्वत्कला मयि संस्थिता ॥ २६॥
अलक्ष्मीं हरतु क्षिप्रं तमः सूर्यप्रभा यथा ।
वितनोतु मम श्रेयस्त्वत्कला मयि संस्थिता ॥ २७॥
ऐश्वर्यमङ्गलोत्पत्तिः त्वत्कलायां निधीयते ।
मयि तस्मात्कृतार्थोऽस्मि पात्रमस्मि स्थितेस्तव ॥ २८॥
भवदावेशभाग्यार्हो भाग्यवानस्मि भार्गवि ।
त्वत्प्रसादात्पवित्रोऽहं लोकमातर्नमोऽस्तु ते ॥ २९॥
पुनासि मां त्वत्कलयैव यस्मात्
अतस्समागच्छ ममाग्रतस्त्वम् ।
परं पदं श्रीर्भव सुप्रसन्ना
मय्यच्युतेन प्रविशादिलक्ष्मीः ॥ ३०॥
श्रीवैकुण्ठस्थिते लक्ष्मि समागच्छ ममाग्रतः ।
नारायणेन सह मां कृपादृष्ट्याऽवलोकय ॥ ३१॥
सत्यलोकस्थिते लक्ष्मि त्वं ममागच्छ सन्निधिम् ।
वासुदेवेन सहिता प्रसीद वरदा भव ॥ ३२॥
श्वेतद्वीपस्थिते लक्ष्मि शीघ्रमागच्छ सुव्रते ।
विष्णुना सहिता देवि जगन्मातः प्रसीद मे ॥ ३३॥
क्षीराम्बुधिस्थिते लक्ष्मि समागच्छ समाधवे ।
त्वत्कृपादृष्टिसुधया सततं मां विलोकय ॥ ३४॥
रत्नगर्भस्थिते लक्ष्मि परिपूर्णहिरण्मयि ।
समागच्छ समागच्छ स्थित्वाऽऽशु पुरतो मम ॥ ३५॥
स्थिरा भव महालक्ष्मि निश्चला भव निर्मले ।
प्रसन्नकमले देवि प्रसन्नहृदया भव ॥ ३६॥
श्रीधरे श्रीमहालक्ष्मि त्वदन्तःस्थं महानिधिम् ।
शीघ्रमुद्धृत्य पुरतः प्रदर्शय समर्पय ॥ ३७॥
वसुन्धरे श्रीवसुधे वसुदोग्ध्रि कृपामयि ।
त्वत्कुक्षिगतसर्वस्वं शीघ्रं मे सम्प्रदर्शय ॥ ३८॥
विष्णुप्रिये रत्नगर्भे समस्तफलदे शिवे ।
त्वद्गर्भगतहेमादीन् सम्प्रदर्शय दर्शय ॥ ३९॥
रसातलगते लक्ष्मि शीघ्रमागच्छ मे पुरः ।
न जाने परमं रूपं मातर्मे सम्प्रदर्शय ॥ ४०॥
आविर्भव मनोवेगात् शीघ्रमागच्छ मे पुरः ।
मा वत्स भैरिहेत्युक्त्वा कामं गौरिव रक्ष माम् ॥ ४१॥
देवि शीघ्रं समागच्छ धरणीगर्भसंस्थिते ।
मातस्त्वद्भृत्यभृत्योऽहं मृगये त्वां कुतूहलात् ॥ ४२॥
उत्तिष्ठ जागृहि त्वं मे समुत्तिष्ठ सुजागृहि ।
अक्षयान् हेमकलशान् सुवर्णेन सुपूरितान् ॥ ४३॥
निक्षेपान्मे समाकृष्य समुद्धृत्य ममाग्रतः ।
समुन्नतानना भूत्वा सम्यग्धेहि धरातलात् ॥ ४४॥
मत्सन्निधिं समागच्छ मदाहितकृपारसात् ।
प्रसीद श्रेयसां दोग्ध्रि लक्ष्मि मे नयनाग्रतः ॥ ४५॥
अत्रोपविश्य लक्ष्मि त्वं स्थिरा भव हिरण्मयी ।
सुस्थिरा भव सम्प्रीत्या प्रसन्ना वरदा भव ॥ ४६॥
आनीतांस्तु त्वया देवि निधीन्मे सम्प्रदर्शय ।
अद्य क्षणेन सहसा दत्त्वा संरक्ष मां सदा ॥ ४७॥
मयि तिष्ठ तथा नित्यं यथेन्द्रादिषु तिष्ठसि ।
अभयं कुरु मे देवि महालक्ष्मि नमोऽस्तु ते ॥ ४८॥
समागच्छ महालक्ष्मि शुद्धजाम्बूनद-स्थिते ।
प्रसीद पुरतः स्थित्वा प्रणतं मां विलोकय ॥ ४९॥
लक्ष्मीर्भुवं गता भासि यत्र यत्र हिरण्मयी ।
तत्र तत्र स्थिता त्वं मे तव रूपं प्रदर्शय ॥ ५०॥
क्रीडन्ती बहुधा भूमौ परिपूर्णकृपा मयि ।
मम मूर्धनि ते हस्तमविलम्बितमर्पय ॥ ५१॥
फलद्भाग्योदये लक्ष्मि समस्तपुरवासिनि ।
प्रसीद मे महालक्ष्मि परिपूर्णमनोरथे ॥ ५२॥
अयोध्यादिषु सर्वेषु नगरेषु समास्थिते ।
विभवैर्विविधैर्युक्तैः समागच्छ मुदान्विते ॥ ५३॥
समागच्छ समागच्छ ममाग्रे भव सुस्थिरा ।
करुणारसनिष्यन्दनेत्रद्वयविशालिनि ॥ ५४॥
सन्निधत्स्व महालक्ष्मि त्वत्पाणिं मम मस्तके ।
करुणासुधया मां त्वमभिषिच्य स्थिरं कुरु ॥ ५५॥
सर्वराजगृहे लक्ष्मि समागच्छ बलान्विते ।
स्थित्वाऽऽशु पुरतो मेऽद्य प्रसादेनाभयं कुरु ॥ ५६॥
सादरं मस्तके हस्तं मम त्वं कृपयाऽर्पय ।
सर्वराजस्थिते लक्ष्मि त्वत्कला मयि तिष्ठतु ॥ ५७॥
आद्यादि श्रीर्महालक्ष्मि विष्णुवामाङ्कसंस्थिते ।
प्रत्यक्षं कुरु मे रूपं रक्ष मां शरणागतम् ॥ ५८॥
प्रसीद मे महालक्ष्मि सुप्रसीद महाशिवे ।
अचला भव सुप्रीता सुस्थिरा भव मद्गृहे ॥ ५९॥
यावत्तिष्ठन्ति वेदाश्च यावच्चन्द्र-दिवाकरौ ।
यावद्विष्णुश्च यावत्त्वं तावत्कुरु कृपां मयि ॥ ६०॥
चान्द्री कला यथा शुक्ले वर्धते सा दिने दिने ।
तथा दया ते मय्येव वर्धतामभिवर्धताम् ॥ ६१॥
यथा वैकुण्ठनगरे यथा वै क्षीरसागरे ।
तथा मद्भवने तिष्ठ स्थिरं श्रीविष्णुना सह ॥ ६२॥
योगिनां हृदये नित्यं यथा तिष्ठसि विष्णुना ।
तथा मद्भवने तिष्ठ स्थिरं श्रीविष्णुना सह ॥ ६३॥
नारायणस्य हृदये भवती यथाऽऽस्ते
नारायणोऽपि तव हृत्कमले यथाऽऽस्ते ।
नारायणस्त्वमपि नित्यविभू तथैव
तौ तिष्ठतां हृदि ममापि दयान्वितौ श्रीः ॥ ६४॥
विज्ञानवृद्धिं हृदये कुरु श्रीः सौभाग्यवृद्धिं कुरु मे गृहे श्रीः ।
दयासुवृद्धिं कुरुतां मयि श्रीः सुवर्णवृद्धिं कुरु मे गृहे श्रीः ॥ ६५॥
न मां त्यजेथाः श्रितकल्पवल्लि सद्भक्ति-चिन्तामणि-कामधेनो ।
न मां त्यजेथा भव सुप्रसन्ने गृहे कलत्रेषु च पुत्रवर्गे ॥ ६६॥
॥ कुक्षिबीजम् ॥ ॐ-अं-आं-ईं-एं-ऐं ॥
आद्यादिमाये त्वमजाण्डबीजं त्वमेव साकार-निराकृती त्वम् ।
त्वया धृताश्चाब्जभवाण्डसङ्घाश्चित्रं चरित्रं तव देवि विष्णोः ॥ ६७॥
ब्रह्मरुद्रादयो देवा वेदाश्चापि न शक्नुयुः ।
महिमानं तव स्तोतुं मन्दोऽहं शक्नुयां कथम् ॥ ६८॥
अम्ब त्वद्वत्सवाक्यानि सूक्तासूक्तानि यानि च ।
तानि स्वीकुरु सर्वज्ञे दयालुत्वेन सादरम् ॥ ६९॥
भवन्तं शरणं गत्वा कृतार्थाः स्युः पुरातनाः ।
इति सञ्चिन्त्य मनसा त्वामहं शरणं व्रजे ॥ ७०॥
अनन्ता नित्यसुखिनः त्वद्भक्तास्त्वत्परायणाः ।
इति वेदप्रमाणाद्धि देवि त्वां शरणं व्रजे ॥ ७१॥
तव प्रतिज्ञा मद्भक्ता न नश्यन्तीत्यपि क्वचित् ।
इति सञ्चिन्त्य सञ्चिन्त्य प्राणान् सन्धारयाम्यहम् ॥ ७२॥
त्वदधीनस्त्वहं मातः त्वत्कृपा मयि विद्यते ।
यावत्सम्पूर्णकामः स्यां तावद्देहि दयानिधे ॥ ७३॥
क्षणमात्रं न शक्नोमि जीवितुं त्वत्कृपां विना ।
न हि जीवन्ति जलजा जलं त्यक्त्वा जलाश्रयाः ॥ ७४॥
यथा हि पुत्रवात्सल्यात् जननी प्रस्नुतस्तनी ।
वत्सं त्वरितमागत्य सम्प्रीणयति वत्सला ॥ ७५॥
यदि स्यां तव पुत्रोऽहं माता त्वं यदि मामकी ।
दयापयोधर-स्तन्य-सुधाभिरभिषिञ्च माम् ॥ ७६॥
मृग्यो न गुणलेशोऽपि मयि दोषैक-मन्दिरे ।
पांसूनां वृष्टिबिन्दूनां दोषाणां च न मे मतिः ॥ ७७॥
पापिनामहमेकाग्रो दयालूनां त्वमग्रणीः ।
दयनीयो मदन्योऽस्ति तव कोऽत्र जगत्त्रये ॥ ७८॥
विधिनाहं न सृष्टश्चेत् न स्यात्तव दयालुता ।
आमयो वा न सृष्टश्चेदौषधस्य वृथोदयः ॥ ७९॥
कृपा मदग्रजा किं ते अहं किं वा तदग्रजः ।
विचार्य देहि मे वित्तं तव देवि दयानिधे ॥ ८०॥
माता पिता त्वं गुरुः सद्गतिः श्रीः
त्वमेव सञ्जीवनहेतुभूता ।
अन्यं न मन्ये जगदेकनाथे
त्वमेव सर्वं मम देवि सत्यम् ॥ ८१॥
॥ हृदय बीजम् ॥
ॐ-घ्रां-घ्रीं-घ्रूं-घ्रें-घ्रों-घ्रः-हुं फट् कुरु कुरु स्वाहा ॥
आद्यादिलक्ष्मीर्भव सुप्रसन्ना विशुद्धविज्ञानसुखैकदोग्ध्रि ।
अज्ञानहन्त्री त्रिगुणातिरिक्ता प्रज्ञाननेत्री भव सुप्रसन्ना ॥ ८२॥
अशेषवाग्जाड्य-मलापहन्त्री नवं नवं सुष्टु सुवाक्यदायिनी ।
ममैव जिह्वाग्रसुरङ्गवर्तिनी भव प्रसन्ना वदने च मे श्रीः ॥ ८३॥
समस्तसम्पत्सु विराजमाना समस्ततेजस्सु विभासमाना ।
विष्णुप्रिये त्वं भव दीप्यमाना वाग्देवता मे नयने प्रसन्ना ॥ ८४॥
सर्वप्रदर्शे सकलार्थदे त्वं प्रभासुलावण्यदयाप्रदोग्ध्रि ।
सुवर्णदे त्वं सुमुखी भव श्रीर्हिरण्मयी मे नयने प्रसन्ना ॥ ८५॥
सर्वार्थदा सर्वजगत्प्रसूतिः सर्वेश्वरी सर्वभयापहन्त्री ।
सर्वोन्नता त्वं सुमुखी च नः श्रीर्हिरण्मयी मे भव सुप्रसन्ना ॥ ८६॥
समस्त-विघ्नौघ-विनाशकारिणी समस्त-भक्तोद्धरणे विचक्षणा ।
अनन्तसम्मोद-सुखप्रदायिनी हिरण्मयी मे नयने प्रसन्ना ॥ ८७॥
देवि प्रसीद दयनीयतमाय मह्यं
देवाधिनाथ-भव-देवगणाभिवन्द्ये ।
मातस्तथैव भव सन्निहिता दृशोर्मे
पत्या समं मम मुखे भव सुप्रसन्ना ॥ ८८॥
मा वत्स भैरभयदानकरोऽर्पितस्ते
मौलौ ममेति मयि दीनदयानुकम्पे ।
मातः समर्पय मुदा करुणाकटाक्षं
माङ्गल्यबीजमिह नः सृज जन्म मातः ॥ ८९॥
॥ कण्ठबीजम् ॥ ॐ-श्रां-श्रीं-श्रूं-श्रैं-श्रौं-श्रं-श्राः ॥
कटाक्ष इह कामधुक् तव मनस्तु चिन्तामणिः
करः सुरतरुः सदा नवनिधिस्त्वमेवेन्दिरे ।
भवेत्तव दयारसो मम रसायनं चान्वहं
मुखं तव कलानिधिर्विविध-वाञ्छितार्थप्रदम् ॥ ९०॥
यथा रसस्पर्शनतोऽयसोऽपि सुवर्णता स्यात्कमले तथा ते ।
कटाक्षसंस्पर्शनतो जनानाममङ्गलानामपि मङ्गलत्वम् ॥ ९१॥
देहीति नास्तीति वचः प्रवेशाद् भीतो रमे त्वां शरणं प्रपद्ये ।
अतः सदास्मिन्नभयप्रदा त्वं सहैव पत्या मयि सन्निधेहि ॥ ९२॥
कल्पद्रुमेण मणिना सहिता सुरम्या
श्रीस्ते कला मयि रसेन रसायनेन ।
आस्तामतो मम च दृक्करपाणिपाद-
स्पृष्ट्याः सुवर्णवपुषः स्थिरजङ्गमाः स्युः ॥ ९३॥
आद्यादिविष्णोः स्थिरधर्मपत्नी त्वमेव पत्या मम सन्निधेहि ।
आद्यादिलक्ष्मि त्वदनुग्रहेण पदे पदे मे निधिदर्शनं स्यात् ॥ ९४॥
आद्यादिलक्ष्मीहृदयं पठेद्यः स राज्यलक्ष्मीमचलां तनोति ।
महादरिद्रोऽपि भवेद्धनाढयः तदन्वये श्रीः स्थिरतां प्रयाति ॥ ९५॥
यस्य स्मरणमात्रेण तुष्टा स्याद्विष्णुवल्लभा ।
तस्याभीष्टं ददत्याशु तं पालयति पुत्रवत् ॥ ९६॥
इदं रहस्यं हृदयं सर्वकामफलप्रदम् ।
जपः पञ्चसहस्रं तु पुरश्चरणमुच्यते ॥ ९७॥
त्रिकालमेककालं वा नरो भक्तिसमन्वितः ।
यः पठेत् शृणुयाद्वापि स याति परमां श्रियम् ॥ ९८॥
महालक्ष्मीं समुद्दिश्य निशि भार्गववासरे ।
इदं श्रीहृदयं जप्त्वा पञ्चवारं धनी भवेत् ॥ ९९॥
अनेन हृदयेनान्नं गर्भिण्या अभिमन्त्रितम् ।
ददाति तत्कुले पुत्रो जायते श्रीपतिः स्वयम् ॥ १००॥
नरेणाप्यथवा नार्या लक्ष्मीहृदयमन्त्रिते ।
जले पीते च तद्वंशे मन्दभाग्यो न जायते ॥ १०१॥
य आश्वयुङ्मासि च शुक्लपक्षे रमोत्सवे सन्निहिते च भक्त्या ।
पठेत्तथैकोत्तरवारवृद्ध्या लभेत्स सौवर्णमयीं सुवृष्टिम् ॥ १०२॥
य एकभक्त्याऽन्वहमेकवर्षं विशुद्धधीः सप्ततिवारजापी ।
स मन्दभाग्योऽपि रमाकटाक्षात् भवेत्सहस्राक्षशताधिकश्रीः ॥ १०३॥
श्रीशांघ्रिभक्तिं हरिदासदास्यं प्रपन्नमन्त्रार्थदृढैकनिष्ठाम् ।
गुरोः स्मृतिं निर्मलबोधबुद्धिं प्रदेहि मातः परमं पदं श्रीः ॥ १०४॥
पृथ्वीपतित्वं पुरुषोत्तमत्वं विभूतिवासं विविधार्थसिद्धिम् ।
सम्पूर्णकीर्तिं बहुवर्षभोगं प्रदेहि मे देवि पुनःपुनस्त्वम् ॥ १०५॥
वादार्थसिद्धिं बहुलोकवश्यं वयःस्थिरत्वं ललनासु भोगम् ।
पौत्रादिलब्धिं सकलार्थसिद्धिं प्रदेहि मे भार्गवि जन्मजन्मनि ॥ १०६॥
सुवर्णवृद्धिं कुरु मे गृहे श्रीः विभूतिवृद्धिं कुरू मे गृहे श्रीः ।
कल्याणवृद्धिं कुरु मे गृहे श्रीः विभूतिवृद्धिं कुरु मे गृहे श्रीः ॥ १०७॥
॥ शिरो बीजम् ॥ ॐ-यं-हं-कं-लं- वं-श्रीम् ॥
ध्यायेल्लक्ष्मीं प्रहसितमुखीं कोटिबालार्कभासां
विद्युद्वर्णाम्बरवरधरां भूषणाढ्यां सुशोभाम् ।
बीजापूरं सरसिजयुगं बिभ्रतीं स्वर्णपात्रं
भर्त्रायुक्तां मुहुरभयदां मह्यमप्यच्युतश्रीः ॥ १०८॥
॥ इति श्रीअथर्वणरहस्ये लक्ष्मीहृदयस्तोत्रं सम्पूर्णम् ॥