Shiva Sahasranama Stotram: श्री शिवसहस्रनामस्तोत्रम् के नियमित पाठ से होगी हर मनोकामना पूर्ण और मिलेगा भगवान शिव का आशीर्वाद

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श्री शिवसहस्रनामस्तोत्रम् (Shiva Sahasranama Stotram) में भगवान शिव के एक हजार नामों के द्वरा उनकी महिमा का गुणगान किया गया है। इस स्तोत्र का उल्लेख श्रीमद् महाभारत के अनुशासन पर्व में मिलता है। यह स्तोत्र की शक्ति और प्रभाव अविश्वसनीय है। इसका नियमित पाठ करने से साधक के दोषों और पापों का निवारण होता है और हर मनोकामना पूर्ण होती है। जानियें कब और कैसे करें शिवसहस्रनामस्तोत्रम् (Shiva Sahasranama Stotram) का पाठ? पढ़ियें शिवसहस्रनामस्तोत्रम् और इसका महत्व…

How and When to Recite Shiva Sahasranama Stotram?
कब और कैसे करें शिवसहस्रनामस्तोत्रम् का पाठ?

भगवान महादेव बहुत ही थोड़े से प्रयास से ही प्रसन्न हो जाते है और अपने भक्तों पर अपनी कृपा और आशीर्वाद की वर्षा करते है। जो भी साधक नियमित रूप से शिवसहस्रनामस्तोत्रम् (Shiva Sahasranama Stotram) का पाठ करता है भगवान शिव उसकी सदैव रक्षा करते है। सुबह या प्रदोष काल में कभी भी इस स्तोत्र का पाठ किया जा सकता है। इसके पाठ के लिये शरीर और मन की शुद्धता आवश्यक है। पाठ करने की विधि

  • प्रात:काल स्नानादि नित्यकर्मों से निवृत्त होकर स्वच्छ वस्त्र धारण करें।
  • शिवालय जाकर भगवान शिव का जल से अभिषेक करें। बिल्व पत्र, पुष्प और फल चढ़ायें।
  • फिर दीपक जलाकर उनके समक्ष आसन पर बैठकर एकाग्रचित्त होकर पूर्ण श्रद्धा-भक्ति के साथ शिवसहस्रनामस्तोत्रम् (Shiva Sahasranama Stotram) का पाठ करें।

नोट: इस स्तोत्र का पाठ नियमित रूप से करने से बहुत ही शुभ फलों की प्राप्ति होती है। इसके अतिरिक्त सोमवार, हर माह की प्रदोष तिथि, महाशिवरात्रि और श्रावण मास में शिवसहस्रनामस्तोत्रम् (Shiva Sahasranama Stotram) का पाठ करने से इसका फल कई गुणा बढ़ जाता है।

Significance Of Shiv Sahasranama Stotram
शिवसहस्रनामस्तोत्रम् का माहात्म्य

परमपिता ब्रह्मा के अनुसार शिवसहस्रनामस्तोत्रम् (Shiva Sahasranama Stotram) के द्वारा भगवान शिव की स्तुति करने से पापों और दोषों का नाश होता है। यह चारों वेदों के सार के समान है। जो कोई भी जातक भक्ति और विश्वास के साथ सहस्रनाम (Shiv Sahasranaam) का पाठ करता है, वो सांख्य योग को प्राप्त कर सकता है। उसे मोक्ष की प्राप्ति होती है और उसे भगवान शिव का सान्निध्य प्राप्त हो सकता है। शिवसहस्रनामस्तोत्रम् का नियमित पाठ करने से

  • साधक को जीवन में संतुष्टि प्राप्त होती है।
  • मनोवांछित फलों की प्राप्ति होती है।
  • समस्त पापों से मुक्त होकर जातक निर्मल हो जाता है।
  • रोगों एवं दोषों का निवारण होता है।
  • समस्त बाधाएँ समाप्त हो जाती है।
  • उत्तम स्वास्थ्य की प्राप्ति होती है।
  • साधक दीर्धायु होता है।
  • सुख-समृद्धि में वृद्धि होती है।
  • साधक असुर-यक्ष-राक्षस-पिशाच-यदुधान-गुह्यक-सर्पों आदि के कष्ट से सुरक्षित होता है।
  • साधक की ग्रहों के दुष्प्रभाव से रक्षा होती है। जन्मकुण्ड़ली में उपस्थित ग्रहदोष प्रभावहीन हो जाते है।
  • प्राकृतिक आपदाओं से रक्षा होती है।
  • अकाल मृत्यु का भय नही रहता।
  • अप्रिय स्वप्न और संकेतों से भी सुरक्षा होती है।
  • मानसिक एकाग्रता और बुद्धि में वृद्धि होती है।
  • कार्य क्षेत्र में सफलता मिलती है।

Background Of Shiva Sahasranama Stotram
शिवसहस्रनामस्तोत्रम् की पृष्ठभूमि

पौराणिक ग्रंथों में मिले उल्लेखों के अनुसार महर्षि तंडी, जिनका उच्चारण स्वयं इंद्र के समान था, उनको भगवान महादेव की महिमागान करने का गौरव प्राप्त था। भगवान शिव जिन्हे कृत्तिवासा भी कहा जाता है उन्हे शुभता और पवित्रता का प्रतीक भी माना जाता था। मूलत: ऐसा कहा जाता है कि सर्वप्रथम भगवान ब्रह्मा ने भगवान शिव की उपस्थिति में बहुत ही सत्यता के साथ शिव के सहस्रनाम (Shiv Sahasranaam) की स्तुति की थी। भगवान ब्रह्मा ने इंद्र को इस गुप्त स्तोत्र का ज्ञान दिया। इन्द्र ने यह ज्ञान भगवान यम को प्रदान किया। धर्मराज यम ने इसे द्वादश रुद्रों को सुनाया। परमपिता ब्रह्मा जी की उपस्थिति में महर्षि तण्ड़ी को इस सहस्रनाम की शिक्षा प्राप्त हुई। आगे तण्ड़ी ने दानव गुरु शुक्राचार्य को वही शिक्षा दी। फिर यह पवित्र स्तुति तब गौतम ऋषि ने सीखी। उन्होंने आगे सत्य नारायण ऋषि को प्रशिक्षित किया। इनसे फिर वैवस्वत मनु, नचिकेता मुनि, मार्कंडेय को इसका ज्ञान प्राप्त हुआ। फिर उपमन्यु ऋषि ने यशस्वी शिवसहस्रनाम स्तोत्र (Shiva Sahasranama Stotram) का पाठ भगवान श्रीकृष्ण को सुनाया।

Shiva Sahasranama Stotram Lyrics
श्रीशिवसहस्रनामस्तोत्रम्

महाभारतान्तर्गतम्

ततः स प्रयतो भूत्वा मम तात युधिष्ठिर ।
प्राञ्जलिः प्राह विप्रर्षिर्नामसङ्ग्रहमादितः ॥ १॥

उपमन्युरुवाच

ब्रह्मप्रोक्तैरृषिप्रोक्तैर्वेदवेदाङ्गसम्भवैः ।
सर्वलोकेषु विख्यातं स्तुत्यं स्तोष्यामि नामभिः ॥ २॥

महद्भिर्विहितैः सत्यैः सिद्धैः सर्वार्थसाधकैः ।
ऋषिणा तण्डिना भक्त्या कृतैर्वेदकृतात्मना ॥ ३॥

यथोक्तैः साधुभिः ख्यातैर्मुनिभिस्तत्त्वदर्शिभिः ।
प्रवरं प्रथमं स्वर्ग्यं सर्वभूतहितं शुभम् ॥ ४॥

श्रुतेः सर्वत्र जगति ब्रह्मलोकावतारितैः ।
सत्यैस्तत्परमं ब्रह्म ब्रह्मप्रोक्तं सनातनम् ।
वक्ष्ये यदुकुलश्रेष्ठ श‍ृणुष्वावहितो मम ॥ ५॥

वरयैनं भवं देवं भक्तस्त्वं परमेश्वरम् ।
तेन ते श्रावयिष्यामि यत्तद्ब्रह्म सनातनम् ॥ ६॥

न शक्यं विस्तरात्कृत्स्नं वक्तुं सर्वस्य केनचित् ।
युक्तेनापि विभूतीनामपि वर्षशतैरपि ॥ ७॥

यस्यादिर्मध्यमन्तं च सुरैरपि न गम्यते ।
कस्तस्य शक्नुयाद्वक्तुं गुणान्कार्त्स्न्येन माधव ॥ ८॥

किन्तु देवस्य महतः सङ्क्षिप्तार्थपदाक्षरम् ।
शक्तितश्चरितं वक्ष्ये प्रसादात्तस्य धीमतः ॥ ९॥

अप्राप्य तु ततोऽनुज्ञां न शक्यः स्तोतुमीश्वरः ।
यदा तेनाभ्यनुज्ञातः स्तुतो वै स तदा मया ॥ १०॥

अनादिनिधनस्याहं जगद्योनेर्महात्मनः ।
नाम्नां कञ्चित्समुद्देशं वक्ष्याम्यव्यक्तयोनिनः ॥ ११॥

वरदस्य वरेण्यस्य विश्वरूपस्य धीमतः ।
श‍ृणु नाम्नां चयं कृष्ण यदुक्तं पद्मयोनिना ॥ १२॥

दश नामसहस्राणि यान्याह प्रपितामहः ।
तानि निर्मथ्य मनसा दध्नो घृतमिवोद्धृतम् ॥ १३॥

गिरेः सारं यथा हेम पुष्पसारं यथा मधु ।
घृतात्सारं यथा मण्डस्तथैतत्सारमुद्धृतम्। १४॥

सर्वपापापहमिदं चतुर्वेदसमन्वितम् ।
प्रयत्नेनाधिगन्तव्यं धार्यं च प्रयतात्मना ॥ १५॥

माङ्गल्यं पौष्टिकं चैव रक्षोघ्नं पावनं महत् ॥ १६॥

इदं भक्ताय दातव्यं श्रद्दधानास्तिकाय च ।
नाश्रद्दधानरूपाय नास्तिकायाजितात्मने ॥ १७॥

यश्चाभ्यसूयते देवं कारणात्मानमीश्वरम् ।
स कृष्ण नरकं याति सहपूर्वैः सहात्मजैः ॥ १८॥

इदं ध्यानमिदं योगमिदं ध्येयमनुत्तमम् ।
इदं जप्यमिदं ज्ञानं रहस्यमिदमुत्तम् ॥ १९॥

यं ज्ञात्वा अन्तकालेऽपि गच्छेत परमां गतिम् ।
पवित्रं मङ्गलं मेध्यं कल्याणमिदमुत्तमम् ॥ २०॥

इदं ब्रह्मा पुरा कृत्वा सर्वलोकपितामहः ।
सर्वस्तवानां राजत्वे दिव्यानां समकल्पयत् ॥ २१॥

तदा प्रभृति चैवायमीश्वरस्य महात्मनः ।
स्तवराज इति ख्यातो जगत्यमरपूजितः ॥ २२॥

ब्रह्मलोकादयं स्वर्गे स्तवराजोऽवतारितः ।
यतस्तण्डिः पुरा प्राप तेन तण्डिकृतोऽभवत् ॥ २३॥

स्वर्गाच्चैवात्र भूर्लोकं तण्डिना ह्यवतारितः ।
सर्वमङ्गलमाङ्गल्यं सर्वपापप्रणाशनम् ॥ २४॥

निगदिष्ये महाबाहो स्तवानामुत्तमं स्तवम् ।
ब्रह्मणामपि यद्ब्रह्म पराणामपि यत्परम् ॥ २५॥

तेजसामपि यत्तेजस्तपसामपि यत्तपः ।
शान्तीनामपि या शान्तिर्द्युतीनामपि या द्युतिः ॥ २६॥

दान्तानामपि यो दान्तो धीमतामपि या च धीः ।
देवानामपि यो देवो ऋषीणामपि यस्त्वृषिः ॥ २७॥

यज्ञानामपि यो यज्ञः शिवानामपि यः शिवः ।
रुद्राणामपि यो रुद्रः प्रभा प्रभवतामपि ॥ २८॥

योगिनामपि यो योगी कारणानां च कारणम् ।
यतो लोकाः सम्भवन्ति न भवन्ति यतः पुनः ॥ २९॥

सर्वभूतात्मभूतस्य हरस्यामिततेजसः ।
अष्टोत्तरसहस्रं तु नाम्नां शर्वस्य मे श‍ृणु ।
यच्छ्रुत्वा मनुजव्याघ्र सर्वान्कामानवाप्स्यसि ॥ ३०॥

न्यास:
अस्य शिवसहस्रनामस्तोत्र महामंत्रस्य उपमन्यु ऋषि अनुष्टुप छंद श्री सांबसदाशिवो देवता। स्थिरस्थानुर इति बीजम्, श्रीमान् श्री वर्धनो जहः इति शक्तिः, देवतापति इति कीलकम, श्रीसाम्बसदाशिव प्रसाद सिध्यार्थे जपे विनियोगः॥

ध्यान:
शांतम पद्मासनस्तम शशिधरमकुटम पंच वक्त्रम त्रिनेत्रम, शूलम वज्रं च खड्गं परशुं भायदं दक्षिण भागे वहन्तं नागं पाशं घंटं प्रलय हुतावाहमसंकुशम वामा भगे, नानलंकार युक्तम स्फटिकमनि निहं पर्वतेशं नमामि।

‘लम्’ पृथ्वी तत्वात्मने गंधं धारयामि;
‘हं’ आकाश तत्वमनेय पुष्पै पूजयामि;
‘यं’ वायु तत्त्वात्मने धूपमाघ्रापयामि;
‘राम’ अग्नेयात्मनि दीपं दर्शयामि;
‘वम्’ अमृत तत्त्वात्मनि अमृता नैवेद्यं निवेदयामि;
‘सम्’ सम्पूर्णं समर्पयामि’।

अथ सहस्रनामस्तोत्रम् ।

ॐ स्थिरः स्थाणुः प्रभुर्भानुः प्रवरो वरदो वरः ।
सर्वात्मा सर्वविख्यातः सर्वः सर्वकरो भवः ॥ ३१॥

जटी चर्मी शिखी खड्गी सर्वाङ्गः सर्वभावनः ।
हरश्च हरिणाक्षश्च सर्वभूतहरः प्रभुः ॥ ३२॥

प्रवृत्तिश्च निवृत्तिश्च नियतः शाश्वतो ध्रुवः ।
श्मशानवासी भगवान्खचरो गोचरोऽर्दनः ॥ ३३॥

अभिवाद्यो महाकर्मा तपस्वी भूतभावनः ।
उन्मत्तवेषप्रच्छन्नः सर्वलोकप्रजापतिः ॥ ३४॥

महारूपो महाकायो वृषरूपो महायशाः ।
महात्मा सर्वभूतात्मा विश्वरूपो महाहनुः ॥ ३५॥

लोकपालोऽन्तर्हितात्मा प्रसादो हयगर्दभिः ।
पवित्रं च महांश्चैव नियमो नियमाश्रितः ॥ ३६॥

सर्वकर्मा स्वयम्भूत आदिरादिकरो निधिः ।
सहस्राक्षो विशालाक्षः सोमो नक्षत्रसाधकः ॥ ३७॥

चन्द्रः सूर्यः शनिः केतुर्ग्रहो ग्रहपतिर्वरः ।
अत्रिरत्र्यानमस्कर्ता मृगबाणार्पणोऽनघः ॥ ३८॥

महातपा घोरतपा अदीनो दीनसाधकः ।
संवत्सरकरो मन्त्रः प्रमाणं परमं तपः ॥ ३९॥

योगी योज्यो महाबीजो महारेता महाबलः ।
सुवर्णरेताः सर्वज्ञः सुबीजो बीजवाहनः ॥ ४०॥

दशबाहुस्त्वनिमिषो नीलकण्ठ उमापतिः ।
विश्वरूपः स्वयंश्रेष्ठो बलवीरो बलो गणः ॥ ४१॥

गणकर्ता गणपतिर्दिग्वासाः काम एव च ।
मन्त्रवित्परमो मन्त्रः सर्वभावकरो हरः ॥ ४२॥

कमण्डलुधरो धन्वी बाणहस्तः कपालवान् ।
अशनी शतघ्नी खड्गी पट्टिशी चायुधी महान् ॥ ४३॥

स्रुवहस्तः सुरूपश्च तेजस्तेजस्करो निधिः ।
उष्णीषी च सुवक्त्रश्च उदग्रो विनतस्तथा ॥ ४४॥

दीर्घश्च हरिकेशश्च सुतीर्थः कृष्ण एव च ।
श‍ृगालरूपः सिद्धार्थो मुण्डः सर्वशुभङ्करः ॥ ४५॥

अजश्च बहुरूपश्च गन्धधारी कपर्द्यपि ।
ऊर्ध्वरेता ऊर्ध्वलिङ्ग ऊर्ध्वशायी नभःस्थलः ॥ ४६॥

त्रिजटी चीरवासाश्च रुद्रः सेनापतिर्विभुः ।
अहश्चरो नक्तञ्चरस्तिग्ममन्युः सुवर्चसः ॥ ४७॥

गजहा दैत्यहा कालो लोकधाता गुणाकरः ।
सिंहशार्दूलरूपश्च आर्द्रचर्माम्बरावृतः ॥ ४८॥

कालयोगी महानादः सर्वकामश्चतुष्पथः ।
निशाचरः प्रेतचारी भूतचारी महेश्वरः ॥ ४९॥

बहुभूतो बहुधरः स्वर्भानुरमितो गतिः ।
नृत्यप्रियो नित्यनर्तो नर्तकः सर्वलालसः ॥ ५०॥

घोरो महातपाः पाशो नित्यो गिरिरुहो नभः ।
सहस्रहस्तो विजयो व्यवसायो ह्यतन्द्रितः ॥ ५१॥

अधर्षणो धर्षणात्मा यज्ञहा कामनाशकः ।
दक्षयागापहारी च सुसहो मध्यमस्तथा ॥ ५२॥

तेजोपहारी बलहा मुदितोऽर्थोऽजितोऽवरः ।
गम्भीरघोषा गम्भीरो गम्भीरबलवाहनः ॥ ५३॥

न्यग्रोधरूपो न्यग्रोधो वृक्षपर्णस्थितिर्विभुः ।
सुतीक्ष्णदशनश्चैव महाकायो महाननः ॥ ५४॥

विष्वक्सेनो हरिर्यज्ञः संयुगापीडवाहनः ।
तीक्ष्णतापश्च हर्यश्वः सहायः कर्मकालवित् ॥ ५५॥

विष्णुप्रसादितो यज्ञः समुद्रो वडवामुखः ।
हुताशनसहायश्च प्रशान्तात्मा हुताशनः ॥ ५६॥

उग्रतेजा महातेजा जन्यो विजयकालवित् ।
ज्योतिषामयनं सिद्धिः सर्वविग्रह एव च ॥ ५७॥

शिखी मुण्डी जटी ज्वाली मूर्तिजो मूर्धगो बली ।
वेणवी पणवी ताली खली कालकटङ्कटः ॥ ५८॥

नक्षत्रविग्रहमतिर्गुणबुद्धिर्लयो गमः ।
प्रजापतिर्विश्वबाहुर्विभागः सर्वगोऽमुखः ॥ ५९॥

विमोचनः सुशरणो हिरण्यकवचोद्भवः ।
मेढ्रजो बलचारी च महीचारी स्रुतस्तथा ॥ ६०॥

सर्वतूर्यनिनादी च सर्वातोद्यपरिग्रहः ।
व्यालरूपो गुहावासी गुहो माली तरङ्गवित् ॥ ६१॥

त्रिदशस्त्रिकालधृक्कर्मसर्वबन्धविमोचनः ।
बन्धनस्त्वसुरेन्द्राणां युधि शत्रुविनाशनः ॥ ६२॥

साङ्ख्यप्रसादो दुर्वासाः सर्वसाधुनिषेवितः ।
प्रस्कन्दनो विभागज्ञो अतुल्यो यज्ञभागवित् ॥ ६३॥

सर्ववासः सर्वचारी दुर्वासा वासवोऽमरः ।
हैमो हेमकरो यज्ञः सर्वधारी धरोत्तमः ॥ ६४॥

लोहिताक्षो महाक्षश्च विजयाक्षो विशारदः ।
सङ्ग्रहो निग्रहः कर्ता सर्पचीरनिवासनः ॥ ६५॥

मुख्योऽमुख्यश्च देहश्च काहलिः सर्वकामदः ।
सर्वकासप्रसादश्च सुबलो बलरूपधृत् ॥ ६६॥

सर्वकामवरश्चैव सर्वदः सर्वतोमुखः ।
आकाशनिर्विरूपश्च निपाती ह्यवशः खगः ॥ ६७॥

रौद्ररूपोंऽशुरादित्यो बहुरश्मिः सुवर्चसी ।
वसुवेगो महावेगो मनोवेगो निशाचरः ॥ ६८॥

सर्ववासी श्रियावासी उपदेशकरोऽकरः ।
मुनिरात्मनिरालोकः सम्भग्नश्च सहस्रदः ॥ ६९॥

पक्षी च पक्षरूपश्च अतिदीप्तो विशाम्पतिः ।
उन्मादो मदनः कामो ह्यश्वत्थोऽर्थकरो यशः ॥ ७०॥

वामदेवश्च वामश्च प्राग्दक्षिणश्च वामनः ।
सिद्धयोगी महर्षिश्च सिद्धार्थः सिद्धसाधकः ॥ ७१॥

भिक्षुश्च भिक्षुरूपश्च विपणो मृदुरव्ययः ।
महासेनो विशाखश्च षष्टिभागो गवाम्पतिः ॥ ७२॥

वज्रहस्तश्च विष्कम्भी चमूस्तम्भन एव च ।
वृत्तावृत्तकरस्तालो मधुर्मधुकलोचनः ॥ ७३॥

वाचस्पत्यो वाजसनो नित्यमाश्रमपूजितः ।
ब्रह्मचारी लोकचारी सर्वचारी विचारवित् ॥ ७४॥

ईशान ईश्वरः कालो निशाचारी पिनाकवान् ।
निमित्तस्थो निमित्तं च नन्दिर्नन्दिकरो हरिः ॥ ७५॥

नन्दीश्वरश्च नन्दी च नन्दनो नन्दिवर्धनः ।
भगहारी निहन्ता च कालो ब्रह्मा पितामहः ॥ ७६॥

चतुर्मुखो महालिङ्गश्चारुलिङ्गस्तथैव च ।
लिङ्गाध्यक्षः सुराध्यक्षो योगाध्यक्षो युगावहः ॥ ७७॥

बीजाध्यक्षो बीजकर्ता अव्यात्माऽनुगतो बलः ।
इतिहासः सकल्पश्च गौतमोऽथ निशाकरः ॥ ७८॥

दम्भो ह्यदम्भो वैदम्भो वश्यो वशकरः कलिः ।
लोककर्ता पशुपतिर्महाकर्ता ह्यनौषधः ॥ ७९॥

अक्षरं परमं ब्रह्म बलवच्छक्र एव च ।
नीतिर्ह्यनीतिः शुद्धात्मा शुद्धो मान्यो गतागतः ॥ ८०॥

बहुप्रसादः सुस्वप्नो दर्पणोऽथ त्वमित्रजित् ।
वेदकारो मन्त्रकारो विद्वान्समरमर्दनः ॥ ८१॥

महामेघनिवासी च महाघोरो वशीकरः ।
अग्निर्ज्वालो महाज्वालो अतिधूम्रो हुतो हविः ॥ ८२॥

वृषणः शङ्करो नित्यं वर्चस्वी धूमकेतनः ।
नीलस्तथाङ्गलुब्धश्च शोभनो निरवग्रहः ॥ ८३॥

स्वस्तिदः स्वस्तिभावश्च भागी भागकरो लघुः ।
उत्सङ्गश्च महाङ्गश्च महागर्भपरायणः ॥ ८४॥

कृष्णवर्णः सुवर्णश्च इन्द्रियं सर्वदेहिनाम् ।
महापादो महाहस्तो महाकायो महायशाः ॥ ८५॥

महामूर्धा महामात्रो महानेत्रो निशालयः ।
महान्तको महाकर्णो महोष्ठश्च महाहनुः ॥ ८६॥

महानासो महाकम्बुर्महाग्रीवः श्मशानभाक् ।
महावक्षा महोरस्को ह्यन्तरात्मा मृगालयः ॥ ८७॥

लम्बनो लम्बितोष्ठश्च महामायः पयोनिधिः ।
महादन्तो महादंष्ट्रो महाजिह्वो महामुखः ॥ ८८॥

महानखो महारोमा महाकेशो महाजटः ।
प्रसन्नश्च प्रसादश्च प्रत्ययो गिरिसाधनः ॥ ८९॥

स्नेहनोऽस्नेहनश्चैव अजितश्च महामुनिः ।
वृक्षाकारो वृक्षकेतुरनलो वायुवाहनः ॥ ९०॥

गण्डली मेरुधामा च देवाधिपतिरेव च ।
अथर्वशीर्षः सामास्य ऋक्सहस्रामितेक्षणः ॥ ९१॥

यजुःपादभुजो गुह्यः प्रकाशो जङ्गमस्तथा ।
अमोघार्थः प्रसादश्च अभिगम्यः सुदर्शनः ॥ ९२॥

उपकारः प्रियः सर्वः कनकः काञ्चनच्छविः ।
नाभिर्नन्दिकरो भावः पुष्करस्थपतिः स्थिरः ॥ ९३॥

द्वादशस्त्रासनश्चाद्यो यज्ञो यज्ञसमाहितः ।
नक्तं कलिश्च कालश्च मकरः कालपूजितः ॥ ९४॥

सगणो गणकारश्च भूतवाहनसारथिः ।
भस्मशयो भस्मगोप्ता भस्मभूतस्तरुर्गणः ॥ ९५॥

लोकपालस्तथा लोको महात्मा सर्वपूजितः ।
शुक्लस्त्रिशुक्लः सम्पन्नः शुचिर्भूतनिषेवितः ॥ ९६॥

आश्रमस्थः क्रियावस्थो विश्वकर्ममतिर्वरः ।
विशालशाखस्ताम्रोष्ठो ह्यम्बुजालः सुनिश्चलः ॥ ९७॥

कपिलः कपिशः शुक्ल आयुश्चैवि परोऽपरः ।
गन्धर्वो ह्यदितिस्तार्क्ष्यः सुविज्ञेयः सुशारदः ॥ ९८॥

परश्वधायुधो देव अनुकारी सुबान्धवः ।
तुम्बवीणो महाक्रोध ऊर्ध्वरेता जलेशयः ॥ ९९॥

उग्रो वंशकरो वंशो वंशनादो ह्यनिन्दितः ।
सर्वाङ्गरूपो मायावी सुहृदो ह्यनिलोऽनलः ॥ १००॥

बन्धनो बन्धकर्ता च सुबन्धनविमोचनः ।
स यज्ञारिः स कामारिर्महादंष्ट्रो महायुधः ॥ १०१॥

बहुधानिन्दितः शर्वः शङ्करः शङ्करोऽधनः ।
अमरेशो महादेवो विश्वदेवः सुरारिहा ॥ १०२॥

अहिर्बुध्न्योऽनिलाभश्च चेकितानो हविस्तथा ।
अजैकपाच्च कापाली त्रिशङ्कुरजितः शिवः ॥ १०३॥

धन्वन्तरिर्धूमकेतुः स्कन्दो वैश्रवणस्तथा ।
धाता शक्रश्च विष्णुश्च मित्रस्त्वष्टा ध्रुवो धरः ॥ १०४॥

प्रभावः सर्वगो वायुरर्यमा सविता रविः ।
उषङ्गुश्च विधाता च मान्धाता भूतभावनः ॥ १०५॥

विभुर्वर्णविभावी च सर्वकामगुणावहः ।
पद्मनाभो महागर्भश्चन्द्रवक्त्रोऽनिलोऽनलः ॥ १०६॥

बलवांश्चोपशान्तश्च पुराणः पुण्यचञ्चुरी ।
कुरुकर्ता कुरुवासी कुरुभूतो गुणौषधः ॥ १०७॥

सर्वाशयो दर्भचारी सर्वेषां प्राणिनां पतिः ।
देवदेवः सुखासक्तः सदसत्सर्वरत्नवित् ॥ १०८॥

कैलासगिरिवासी च हिमवद्गिरिसंश्रयः ।
कूलहारी कूलकर्ता बहुविद्यो बहुप्रदः ॥ १०९॥

वणिजो वर्धकी वृक्षो बकुलश्चन्दनश्छदः ।
सारग्रीवो महाजत्रुरलोलश्च महौषधः ॥ ११०॥

सिद्धार्थकारी सिद्धार्थश्छन्दोव्याकरणोत्तरः ।
सिंहनादः सिंहदंष्ट्रः सिंहगः सिंहवाहनः ॥ १११॥

प्रभावात्मा जगत्कालस्थालो लोकहितस्तरुः ।
सारङ्गो नवचक्राङ्गः केतुमाली सभावनः ॥ ११२॥

भूतालयो भूतपतिरहोरात्रमनिन्दितः ॥ ११३॥

वाहिता सर्वभूतानां निलयश्च विभुर्भवः ।
अमोघः संयतो ह्यश्वो भोजनः प्राणधारणः ॥ ११४॥

धृतिमान्मतिमान्दक्षः सत्कृतश्च युगाधिपः ।
गोपालिर्गोपतिर्ग्रामो गोचर्मवसनो हरिः। ११५॥

हिरण्यबाहुश्च तथा गुहापालः प्रवेशिनाम् ।
प्रकृष्टारिर्महाहर्षो जितकामो जितेन्द्रियः ॥ ११६॥

गान्धारश्च सुवासश्च तपःसक्तो रतिर्नरः ।
महागीतो महानृत्यो ह्यप्सरोगणसेवितः ॥ ११७॥

महाकेतुर्महाधातुर्नैकसानुचरश्चलः ।
आवेदनीय आदेशः सर्वगन्धसुखावहः ॥ ११८॥

तोरणस्तारणो वातः परिधी पतिखेचरः ।
संयोगो वर्धनो वृद्धो अतिवृद्धो गुणाधिकः ॥ ११९॥

नित्य आत्मसहायश्च देवासुरपतिः पतिः ।
युक्तश्च युक्तबाहुश्च देवो दिवि सुपर्वणः ॥ १२०॥

आषाढश्च सुषाण्ढश्च ध्रुवोऽथ हरिणो हरः ।
वपुरावर्तमानेभ्यो वसुश्रेष्ठो महापथः ॥ १२१॥

शिरोहारी विमर्शश्च सर्वलक्षणलक्षितः ।
अक्षश्च रथयोगी च सर्वयोगी महाबलः ॥ १२२॥

समाम्नायोऽसमाम्नायस्तीर्थदेवो महारथः ।
निर्जीवो जीवनो मन्त्रः शुभाक्षो बहुकर्कशः ॥ १२३॥

रत्नप्रभूतो रत्नाङ्गो महार्णवनिपानवित् ।
मूलं विशालो ह्यमृतो व्यक्ताव्यक्तस्तपोनिधिः ॥ १२४॥

आरोहणोऽधिरोहश्च शीलधारी महायशाः ।
सेनाकल्पो महाकल्पो योगो युगकरो हरिः ॥ १२५॥

युगरूपो महारूपो महानागहनो वधः ।
न्यायनिर्वपणः पादः पण्डितो ह्यचलोपमः ॥ १२६॥

बहुमालो महामालः शशी हरसुलोचनः ।
विस्तारो लवणः कूपस्त्रियुगः सफलोदयः ॥ १२७॥

त्रिलोचनो विषण्णाङ्गो मणिविद्धो जटाधरः ।
बिन्दुर्विसर्गः सुमुखः शरः सर्वायुधः सहः ॥ १२८॥

निवेदनः सुखाजातः सुगन्धारो महाधनुः ।
गन्धपाली च भगवानुत्थानः सर्वकर्मणाम् ॥ १२९॥

मन्थानो बहुलो वायुः सकलः सर्वलोचनः ।
तलस्तालः करस्थाली ऊर्ध्वसंहननो महान् ॥ १३०॥

छत्रं सुच्छत्रो विख्यातो लोकः सर्वाश्रयः क्रमः ।
मुण्डो विरूपो विकृतो दण्डी कुण्डी विकुर्वणः। १३१॥

हर्यक्षः ककुभो वज्रो शतजिह्वः सहस्रपात् ।
सहस्रमूर्धा देवेन्द्रः सर्वदेवमयो गुरुः ॥ १३२॥

सहस्रबाहुः सर्वाङ्गः शरण्यः सर्वलोककृत् ।
पवित्रं त्रिककुन्मन्त्रः कनिष्ठः कृष्णपिङ्गलः। १३३॥

ब्रह्मदण्डविनिर्माता शतघ्नीपाशशक्तिमान् ।
पद्मगर्भो महागर्भो ब्रह्मगर्भो जलोद्भवः ॥ १३४॥

गभस्तिर्ब्रह्मकृद्ब्रह्मी ब्रह्मविद्ब्राह्मणो गतिः ।
अनन्तरूपो नैकात्मा तिग्मतेजाः स्वयम्भुवः ॥ १३५॥

ऊर्ध्वगात्मा पशुपतिर्वातरंहा मनोजवः ।
चन्दनी पद्मनालाग्रः सुरभ्युत्तरणो नरः ॥ १३६॥

कर्णिकारमहास्रग्वी नीलमौलिः पिनाकधृत् ।
उमापतिरुमाकान्तो जाह्नवीधृगुमाधवः ॥ १३७॥

वरो वराहो वरदो वरेण्यः सुमहास्वनः ।
महाप्रसादो दमनः शत्रुहा श्वेतपिङ्गलः ॥ १३८॥

पीतात्मा परमात्मा च प्रयतात्मा प्रधानधृत् ।
सर्वपार्श्वमुखस्त्र्यक्षो धर्मसाधारणो वरः ॥ १३९॥

चराचरात्मा सूक्ष्मात्मा अमृतो गोवृषेश्वरः ।
साध्यर्षिर्वसुरादित्यो विवस्वान्सविताऽमृतः १४०॥

व्यासः सर्गः सुसङ्क्षेपो विस्तरः पर्ययो नरः ।
ऋतु संवत्सरो मासः पक्षः सङ्ख्यासमापनः ॥ १४१॥

कला काष्ठा लवा मात्रा मुहूर्ताहःक्षपाः क्षणाः ।
विश्वक्षेत्रं प्रजाबीजं लिङ्गमाद्यस्तु निर्गमः ॥ १४२॥

सदसद्व्यक्तमव्यक्तं पिता माता पितामहः ।
स्वर्गद्वारं प्रजाद्वारं मोक्षद्वारं त्रिविष्टपम् ॥ १४३॥

निर्वाणं ह्लादनश्चैव ब्रह्मलोकः परा गतिः ।
देवासुरविनिर्माता देवासुरपरायणः ॥ १४४॥

देवासुरगुरुर्देवो देवासुरनमस्कृतः ।
देवासुरमहामात्रो देवासुरगणाश्रयः ॥ १४५॥

देवासुरगणाध्यक्षो देवासुरगणाग्रणीः ।
देवातिदेवो देवर्षिर्देवासुरवरप्रदः ॥ १४६॥

देवासुरेश्वरो विश्वो देवासुरमहेश्वरः ।
सर्वदेवमयोऽचिन्त्यो देवतात्माऽऽत्मसम्भवः ॥ १४७॥

उद्भित्त्रिविक्रमो वैद्यो विरजो नीरजोऽमरः ॥
ईड्यो हस्तीश्वरो व्याघ्रो देवसिंहो नरर्षभः ॥ १४८॥

विबुधोऽग्रवरः सूक्ष्मः सर्वदेवस्तपोमयः ।
सुयुक्तः शोभनो वज्री प्रासानां प्रभवोऽव्ययः ॥ १४९॥

गुहः कान्तो निजः सर्गः पवित्रं सर्वपावनः ।
श‍ृङ्गी श‍ृङ्गप्रियो बभ्रू राजराजो निरामयः ॥ १५०॥

अभिरामः सुरगणो विरामः सर्वसाधनः ।
ललाटाक्षो विश्वदेवो हरिणो ब्रह्मवर्चसः ॥ १५१॥

स्थावराणां पतिश्चैव नियमेन्द्रियवर्धनः ।
सिद्धार्थः सिद्धभूतार्थोऽचिन्त्यः सत्यव्रतः शुचिः ॥ १५२॥

व्रताधिपः परं ब्रह्म भक्तानां परमा गतिः ।
विमुक्तो मुक्ततेजाश्च श्रीमान्श्रीवर्धनो जगत् ॥ १५३॥

इति सहस्रनामस्तोत्रम् ।

यथा प्रधानं भगवानिति भक्त्या स्तुतो मया ।
यन्न ब्रह्मादयो देवा विदुस्तत्त्वेन नर्षयः ।
स्तोतव्यमर्च्यं वन्द्यं च कः स्तोष्यति जगत्पतिम् ॥ १५४॥

भक्तिं त्वेवं पुरस्कृत्य मया यज्ञपतिर्विभुः ।
ततोऽभ्यनुज्ञां सम्प्राप्य स्तुतो मतिमतां वरः ॥ १५५॥

शिवमेभिः स्तुवन्देवं नामभिः पुष्टिवर्धनैः ।
नित्ययुक्तः शुचिर्भक्तः प्राप्नोत्यात्मानमात्मना ॥ १५६॥

एतद्धि परमं ब्रह्म परं ब्रह्माधिगच्छति ॥ १५७॥

ऋषयश्चैव देवाश्च स्तुवन्त्येतेन तत्परम् ॥ १५८॥

स्तूयमानो महादेवस्तुष्यते नियतात्मभिः ।
भक्तानुकम्पी भगवानात्मसंस्थाकरो विभुः ॥ १५९॥

तथैव च मनुष्येषु ये मनुष्याः प्रधानतः ।
आस्तिकाः श्रद्धधानाश्च बहुभिर्जन्मभिः स्तवैः ॥ १६०॥

भक्त्या ह्यनन्यमीशानं परं देवं सनातनम् ।
कर्मणा मनसा वाचा भावेनामिततेजसः ॥ १६१॥

शयाना जाग्रमाणाश्च व्रजन्नुपविशंस्तथा ।
उन्मिषन्निमिषंश्चैव चिन्तयन्तः पुनःपनः ॥ १६२॥

श‍ृण्वन्तः श्रावयन्तश्च कथयन्तश्च ते भवम् ।
स्तुवन्तः स्तूयमानाश्च तुष्यन्ति च रमन्ति च ॥ १६३॥

जन्मकोटिसहस्रेषु नानासंसारयोनिषु ।
जन्तोर्विगतपापस्य भवे भक्तिः प्रजायते ॥ १६४॥

उत्पन्ना च भवे भक्तिरनन्या सर्वभावतः ।
भाविनः कारणे चास्य सर्वयुक्तस्य सर्वथा ॥ १६५॥

एतद्देवेषु दुष्प्रापं मनुष्येषु न लभ्यते ।
निर्विघ्ना निश्चला रुद्रे भक्तिरव्यभिचारिणी ॥ १६६॥

तस्यैव च प्रसादेन भक्तिरुत्पद्यते नॄणाम् ।
येन यान्ति परां सिद्धिं तद्भागवतचेतसः ॥ १६७॥ (ये न)

ये सर्वभावानुगताः प्रपद्यन्ते महेश्वरम् ।
प्रपन्नवत्सलो देवः संसारात्तान्समुद्धरेत् ॥ १६८॥

एवमन्ये विकुर्वन्ति देवाः संसारमोचनम् ।
मनुष्याणामृते देवं नान्या शक्तिस्तपोबलम् ॥ १६९॥

इति तेनेन्द्रकल्पेन भगवान्सदसत्पतिः ।
कृत्तिवासाः स्तुतः कृष्ण तण्डिना शुभबुद्धिना ॥ १७०॥

स्तवमेतं भगवतो ब्रह्मा स्वयमधारयत् ।
गीयते च स बुद्ध्येत ब्रह्मा शङ्करसन्निधौ ॥ १७१॥

इदं पुण्यं पवित्रं च सर्वदा पापनाशनम् ।
योगदं मोक्षदं चैव स्वर्गदं तोषदं तथा ॥ १७२॥

एवमेतत्पठन्ते य एकभक्त्या तु शङ्करम् ।
या गतिः साङ्ख्ययोगानां व्रजन्त्येतां गतिं तदा ॥ १७३॥

स्तवमेतं प्रयत्नेन सदा रुद्रस्य सन्निधौ ।
अब्दमेकं चरेद्भक्तः प्राप्नुयादीप्सितं फलम् ॥ १७४॥

एतद्रहस्यं परमं ब्रह्मणो हृदि संस्थितम् ।
ब्रह्मा प्रोवाच शक्राय शक्रः प्रोवाच मृत्यवे ॥ १७५॥

मृत्युः प्रोवाच रुद्रेभ्यो रुद्रेभ्यस्तण्डिमागमत् ।
महता तपसा प्राप्तस्तण्डिना ब्रह्मसद्मनि ॥ १७६॥

तण्डिः प्रोवाच शुक्राय गौतमाय च भार्गवः ।
वैवस्वताय मनवे गौतमः प्राह माधव ॥ १७७॥

नारायणाय साध्याय समाधिष्ठाय धीमते ।
यमाय प्राह भगवान्साध्यो नारायणोऽच्युतः ॥ १७८॥

नाचिकेताय भगवानाह वैवस्वतो यमः ।
मार्कण्डेयाय वार्ष्णेय नाचिकेतोऽभ्यभाषत ॥ १७९॥

मार्कण्डेयान्मया प्राप्तो नियमेन जनार्दन ।
तवाप्यहममित्रघ्न स्तवं दद्यां ह्यविश्रुतम् ॥ १८०॥

स्वर्ग्यमारोग्यमायुष्यं धन्यं वेदेन संमितम् ।
नास्य विघ्नं विकुर्वन्ति दानवा यक्षराक्षसाः ॥ १८१॥

पिशाचा यातुधाना वा गुह्यका भुजगा अपि ।
यः पठेत शुचिः पार्थ ब्रह्मचारी जितेन्द्रियः ।
अभग्नयोगो वर्षं तु सोऽश्वमेधफलं लभेत् ॥ १८२॥

इति श्रीमन्महाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि अष्टचत्वारिंशोऽध्यायः ॥

श्रीमहादेवसहस्रनामस्तोत्रं समाप्तम् ।

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