Kokila Vrat 2024: जानियें कब है कोकिला व्रत? पढ़ियें व्रत की विधि, महत्व और व्रत कथा

Kokila Vrat; Image for Kokila Vrat; Lord shiva and parvati;

धार्मिक मान्यता के अनुसार विधि-विधान से कोकिला व्रत (Kokila Vrat) का पालन करने से सौभाग्यवती स्त्रियों को अखण्ड़ सौभाग्य और कुंवारी लड़कियों को मनपसन्द जीवनसाथी प्राप्त होता हैं। कोकिला व्रत (Kokila Vrat) का उल्लेख शिव पुराण (Shiv Puran) में मिलता है। इस व्रत में भगवान शिव और देवी पार्वती की पूजा किये जाने का विधान है। जानियें कब से शुरू होकर कब तक किया जाता है कोकिला व्रत? और साथ ही पढ़ियें व्रत की विधि, महत्व और व्रत कथा…

Kokila Vrat
कोकिला व्रत

कोकिला व्रत (Kokila Vrat) का आरम्भ आषाढ़ मास की पूर्णिमा तिथि से होता है और यह व्रत श्रावण मास की पूर्णिमा को पूर्ण होता है। यह व्रत सुहागिन स्त्रियाँ और कुँवारी लड़कियाँ रखती है। ऐसा माना जाता है कि देवी सती ने भगवान शिव को पति रूप में पाने के लिये इस व्रत को किया था तबसे अविवाहित कन्याएं अपना मनपसन्द जीवनसाथी पाने के लिये इस व्रत का पालन करती है। इस व्रत को करने से विवाहित स्त्रियों के सौभाग्य में वृद्धि होती है। उनका वैवाहिक जीवन सुखमय होता है।

Kokila Vrat Kab Hai?
कोकिला व्रत कब है?

कोकिला व्रत (Kokila Vrat) का प्रारम्भ 20 जुलाई, 2024 शनिवार से होगा और यह व्रत 19 अगस्त, 2024 सोमवार के दिन पूर्ण होगा।

Significance of Kokila Vrat
कोकिला व्रत का महत्व

कोकिला व्रत (Kokila Vrat) में पूरे श्रावण मास व्रत किया जाता है। यह व्रत आषाढ़ी पूर्णिमा से प्रारम्भ होता है और श्रावण पूर्णिमा को पूर्ण होता है। श्रावण मास भगवान शिव को समर्पित है। इस व्रत में पवित्र नदी, तीर्थ स्थान, झरने या तालाब में जाकर स्नान करना बहुत शुभ माना जाता है। ऐसी मान्यता है कि विधि अनुसार इस व्रत का पालन करने से

  • स्त्रियों को सात जन्मों तक सौभाग्यवती होने का आशीर्वाद प्राप्त होता है।
  • धन-संपत्ति की प्राप्ति होती है।
  • सौभाग्यवती स्त्री का सौभाग्य अखण्ड़ होता है। कुँवारी लड़कियों को मनचाहा जीवनसाथी प्राप्त होता है। विवाह में व्यवधान आ रहें हो तो इस व्रत को करने से शीघ्र विवाह के योग बनते है।
  • वैवाहिक जीवन सुखमय होता है।
  • पति-पत्नी के रिश्ते में मधुरता आती है।
  • रूप-सौंदर्य में वृद्धि होती है।
  • परिवार में सुख-शांति आती है।
  • मनोकामना सिद्ध होती है।

Kokila Vrat Puja Vidhi
कोकिला व्रत की पूजा विधि

कोकिला व्रत (Kokila Vrat) आषाढ़ मास पूर्णिमा से होता है। किंतु इसका आरम्भ एक दिन पूर्व से ही हो जाता है। पूर्णिमा से एक दिन पूर्व संध्या के समय स्नान करके स्वच्छ वस्त्र धारण करें। फिर पूजा स्थान पर बैठकर संकल्प करें कि मैं ब्रह्मचर्य का पालन करते हुये नियमानुसार इस व्रत को करूँगी।

  • अगले दिन अर्थात आषाढ़ी पूर्णिमा से प्रात:काल जल्दी उठकर स्नानादि नित्यक्रिया से निवृत्त होकर स्वच्छ वस्त्र धारण करें। फिर सूर्य देव को अर्घ दें।
  • तत्पश्चात शिवालय जाकर देवी पार्वती और भगवान शिव की पूजा करें। दूध और गंगाजल के साथ भगवान शिवजी का अभिषेक करें।
  • भगवान शिव को सफेद-लाल फूल अर्पित करें। बेलपत्र, भांग, धतूरा, दूर्वा और अष्टगंध चढ़ायें।
  • देवी पार्वती को रोली, हल्दी, मेहन्दी, मोली, फूल माला चढ़ायें।
  • धूप – दीप प्रज्वलित करें।
  • फिर कोकिला व्रत कथा (Kokila Vrat Katha) का पाठ करें या सुनें।
  • इस व्रत में संध्या के समय पूजा करने का भी विशेष महत्व होता है। शाम के समय दीपक जलाकर भगवान शिव की आरती करें और भोग लगायें।
  • संध्या पूजन के बाद ही स्वयं आहार ग्रहण करें। इस व्रत में एक समय ही भोजन करें। पूरे समय तक एक बार फलाहार से व्रत करने का सामर्थ्य ना हो तो एक समय अन्न का सेवन कर सकते हैं।
  • इस व्रत के दौरान तीर्थ स्थानों, गंगा, यमुना या अन्य पवित्र नदियों या पवित्र सरोवर में स्नान करने से बहुत पुण्य प्राप्त होता है।

Kokila Vrat Ke Niyam
कोकिला व्रत के नियम

  • कोकिला व्रत (Kokila Vrat) में एक बार ही भोजन ग्रहण करें।
  • धरती पर ही सोयें।
  • ब्रह्मचर्य का पालन करें।
  • सयंमित आचरण करें।
  • आहार और विचार शुद्ध रखें।
  • परनिंदा से बचें।
  • क्रोध से बचें।

Kokila Vrat Ki Katha
कोकिला व्रत की कथा

कोकिला व्रत (Kokila Vrat) भगवान शिव और देवी सती से संबंधित है। पौराणिक कथा के अनुसार इस व्रत का प्रारम्भ देवी सती के द्वारा किया गया था। देवी सती ने देवी पार्वती के रूप में पुनर्जन्म लिया था।

देवी सती राजा दक्ष की पुत्री थी। देवी सती का विवाह भगवान शिव के साथ हुआ। राजा दक्ष भगवान शिव को पसन्द नही करते थे। राजा दक्ष अपने अहंकार के कारण भगवान शिव का सम्मान नही करता था। बल्कि उनको अपमानित करने की इच्छा से राजा दक्ष ने एक यज्ञ का आयोजन किया और उस यज्ञ में उसने ब्रह्मा, विष्णु व सभी देवी-देवताओं, राजाओं, रिश्तेदारों, सगे संबंधियों को आमंत्रित किया परंतु भगवान शिव को निमंत्रण नही दिया।

देवी सती को जब यह पता चला कि उनके पिता दक्ष ने एक भव्य यज्ञ का आयोजन किया है और उसमें सभी देवी-देवताओं को आमंत्रित किया है लेकिन भगवान शिव और देवी सती को निमंत्रित नही किया। इस बात ने उन्हे दुख और क्रोध से भर दिया। वो इस अपमान को सहन नही कर सकी। देवी सती ने अपने पति भगवान शिव से अपने पिता दक्ष के उस यज्ञ मे जाने की आज्ञा मांगी। भगवान शिव ने देवी सती को समझाया कि बिना निमंत्रण किसी के यहाँ जाना उचित नही है, चाहे वो पिता ही क्यो न हो। किंतु देवी सती ने कहा कि एक पुत्री को अपने पिता के यहाँ जाने के लिये निमंत्रण की आवश्यकता नही होती और वो हठ करके अपने पिता राजा दक्ष के यज्ञ में चली गई।

जब देवी सती अपने पिता राजा दक्ष के यज्ञ में पहुँची तो वहाँ किसी ने उनका आदर सत्कार नही किया अपितु उनको वहाँ अपमान झेलना पड़ा। अपने पिता के द्वारा किये तिरस्कार से वो आहत हो गई। यज्ञ में जब उन्होने भगवन शिव का भाग नही देखा तो उन्हे और क्रोध आया। जब राजा दक्ष ने भगवान शिव का अपमान किया तो देवी सती क्षुब्ध हो उठी। अपने पति के अपमान को सहन नही कर सकी। दुख और क्रोध से भरकर देवी सती यज्ञ की अग्नि में प्रवेश कर गई और उन्होने अपनी देह त्याग दी।

यह समाचार जब भगवान शिव को मिला तो उन्होने अपने गणों के साथ वीरभद्र को राजा दक्ष के यज्ञ को नष्ट कर उन्हे दण्ड़ देने के लिये भेजा। वीरभद्र ने यज्ञ का विध्वंस कर दिया और राजा दक्ष का सिर काट दिया। परमपिता ब्रहमा के आग्रह पर वीरभद्र ने राजा दक्ष के धड पर बकरे का सिर लगाकर उसके अहंकार का नाश कर दिया। देवी सती के हठ से अपने पिता के यज्ञ में जाने और अपने पति भगवान शिव की आज्ञा न मानने के कारण वो देवी सती को कोयल बनकर हजारों वर्षों तक नंदन वन में घूमने का श्राप देते हैं।

देवी सती ने कोयल बनकर हजारों वर्षों तक नंदन वन में तप किया। जिस के कारण इस व्रत को कोकिला व्रत के नाम से सम्बोधित किया गया। जिसके प्रभाव से देवी सती ने देवी पार्वती के रूप में पुनर्जन्म लिया। भगवान शिव को पति रूप में पाने के लिये देवी पार्वती को ऋषियों ने आषाढ़ पूर्णिमा से श्रावण पूर्णिमा तक पूरे माह व्रत रखकर कर शिवजी के पूजन का परामर्श दिया। देवी पार्वती ने वैसा ही किया। जिससे प्रसन्न होकर भगवान शिव ने देवी पार्वती की इच्छा पूर्ण की और उनके साथ विवाह किया। तब से कुंवारी कन्याएँ श्रेष्ठ पति पाने के लिये इस व्रत का पालन करती है।