मनुष्यों के सभी पापों का नाश करने वाला है देवशयनी एकादशी (Devshayani Ekadashi) का व्रत। इस एकादशी को पद्मा एकादशी, देवसोनी ग्यारस (Dev Soni Gyaras) और हरिशयनी एकादशी (Harishayani Ekadashi) भी कहा जाता है। जानियें देवशयनी एकादशी का व्रत कब और कैसे किया जाता है? पढ़ियें व्रत की सम्पूर्ण विधि और व्रत कथा…
Devshayani Ekadashi (Padma Ekadashi)
देवशयनी एकादशी (पद्मा एकादशी)
आषाढ़ मास की शुक्लपक्ष की एकादशी को देवशयनी एकादशी (Devshayani Ekadashi) और पद्मा एकादशी (Padma Ekadashi) कहा जाता है। पौराणिक कथाओं के अनुसार देवशयनी एकादशी से कार्तिक मास की शुक्ल पक्ष की एकादशी (देवउठनी एकादशी) तक पूरे 4 माह के लिये भगवान विष्णु योग निद्रा में रहते हैं। इसीलिये इसे देवश्यन कहा जाता है। देवउठनी एकादशी पर भगवान विष्णु की योग निद्रा पूर्ण होती है। देवशयनी एकादशी से चातुर्मास का प्रारम्भ होता है। देवशयनी एकादशी से देवउठनी तक विवाह आदि मांगलिक कार्य नहीं किये जाते। चातुर्मास में पूजा-पाठ, भजन-कीर्तन, कथा-भागवत, आदि अनुष्ठान करना श्रेष्ठ होते है। चातुर्मास में ब्रज की यात्रा बहुत शुभफलदायी मानी गयी है।
Devshayani Ekadashi (Padma Ekadashi) Kab Hai?
देवशयनी एकादशी (पद्मा एकादशी) कब है?
इस वर्ष देवशयनी एकादशी (पद्मा एकादशी) का व्रत एवं पूजन 17 जुलाई 2024, बुधवार के दिन किया जायेगा।
Significance of Harishayani Ekadashi
हरिशयनी एकादशी का महत्व (माहात्म्य)
देवशयनी एकादशी (Devshayani Ekadashi) को पद्मा एकादशी और हरिशयनी एकादशी भी कहा जाता है। पौराणिक कथाओं के अनुसार ब्रह्मा जी ने देवशयनी एकादशी के व्रत को सभी व्रतों में उत्तम बताया है। देवशयनी एकादशी का व्रत करने से मनुष्य के सभी पाप नष्ट हो जाते हैं और उसे भगवान विष्णु की कृपा प्राप्त होती है, उस पर भगवान विष्णु प्रसन्न होते हैं। इस एकादशी का व्रत करने वाले मनुष्य की सभी मनोकामनायें पूर्ण होती है। जो मनुष्य इस एकादशी का व्रत करते है उन्हे मोक्ष की प्राप्ति होती है और इसका व्रत ना करने वाले मनुष्य को नरक की यात्रा करनी पड़ती है।
हिंदु मान्यताओं के अनुसार देवशयनी एकादशी का विशेष महत्व है। विभिन्न ग्रंथों मे देवशयनी एकादशी के दिन के महत्व के विषय मे बताया गया है।
श्रीमदभागवत पुराण के अनुसार देवशयनी एकादशी (Devshayani Ekadashi) को भगवान विष्णु ने शंखासुर नाम के राक्षस का वध किया था। फिर उसके बाद से पूरे चार महीने के लिये भगवान क्षीर समुद्र में योग निंद्रा मे रहते हैं।
अन्य धार्मिक ग्रंथ के अनुसार जब भगवान विष्णु ने वामन अवतार लेकर राजा बलि से तीन पग भूमि दान में माँगी थी। राजा बलि ने संकल्प करके उन्हे तीन पग भूमि दान करना स्वीकार किया था। तब भगवान विष्णु ने विराट रूप लेकर एक पग में पूरी पृथ्वी, आकाश और समस्त दिशाओं को ढक लिया। दूसरे पग में स्वर्ग आदि समस्त लोकों को ढक लिया। उसके पश्चात उन्होने राजा बलि से कहा की तीसरा पग कहा रखूँ तो राजा बलि ने कहा की प्रभु आप तीसरा पग मेरे शीश पर रखें। तब भगवान ने तीसरा पग राजा बलि के सिर पर रखा। राजा बलि के आचरण से प्रसन्न होकर भगवान विष्णु ने राजा बलि को पाताल लोक का राजा बना दिया और उससे वर मांगने के लिये कहा।
तब राजा बलि ने वर मांगा की प्रभु आप सदा मेरे साथ मेरे महल में निवास करें। भगवान ने उसको इच्छा अनुसार वर प्रदान किया। और उसके साथ रहने लगे। जब माता लक्ष्मी को यह पता लगा तो उन्होने भगवान विष्णु वापस लाने के लिये राजा बलि को अपना भाई बनाया और भगवान को वचन से मुक्त करने का निवेदन किया। तब राजा बलि ने माता लक्ष्मी की बात मानते हुए सिर्फ चार माह के लिये ही भगवान को अपने पास रखना स्वीकार किया।
तब से ऐसा माना जाता है कि भगवान विष्णु, ब्रह्मा जी, और भगवान शंकर 4 – 4 महीने के लिये पाताल लोक में निवास करते हैं। भगवान विष्णु देवशयनी एकादशी से देवउठनी एकादशी तक पाताल लोक मे रहते है, उसके बाद शिवजी देवउठनी एकादशी से महाशिवरात्रि तक पाताल लोक में रहते है और उसके बाद ब्रह्मा जी शिवरात्रि से देवशयनी एकादशी तक पाताल लोक मे निवास करते हैं।
इस व्रत का का माहात्म्य पढ़ने या सुनने से ही मनुष्य अकाल मृत्यु के भय से मुक्त हो जाता हैं। देवशयनी एकादशी के दिन तुलसी का पौधा लगाने से महान पुण्य प्राप्त होता है। हिंदु धर्म में तुलसी का विशेष महत्व है इसके होने से यमदूत भय खाते हैं। जो व्यक्ति अपने गले में तुलसी की माला धारण करते है उनका जीवन धन्य हो जाता है।
Devshayani Ekadashi Ki Puja Vidhi
देवशयनी एकादशी की पूजा विधि
• देवशयनी एकादशी (Devshayani Ekadashi) का व्रत सौभाग्य मे वृद्धि करने वाला है। पुराणों के अनुसार इस दिन का व्रत करने से मनुष्य अपने सभी प्रकार के पापों से मुक्त हो जाता है।
• हर एकादशी के व्रत की भांति यह व्रत भी दशमी तिथि की रात से ही आरम्भ हो जाता है।
• व्रत करने वाला प्रात:काल जल्दी उठकर घर की साफ-सफाई करें और नित्यक्रिया से निवृत्त होकर घर में गंगाजल का छिड़काव करें।
• घर के पूजा के स्थान पर कलश स्थापित करके उसपर भगवान विष्णु की सोने, चांदी, तांबे या कांसे की मूर्ति को स्थापित करें। इसके बाद षोडशोपचार से उनकी पूजा करें, भगवान के लिए नया बिछौना बिछाये, और भगवान विष्णु को पीतांबर उढ़ायें और उनका श्रुंगार करें।
• तत्पश्चात भगवान विष्णु को पान एवं सुपारी चढ़ायें, पुष्प अर्पित करें और धूप-दीप जलायें। फिर इस मंत्र के द्वारा भगवान विष्णु की स्तुति करें…
सुप्ते त्वयि जगन्नाथ जमत्सुप्तं भवेदिदम् ।
विबुद्धे त्वयि बुद्धं च जगत्सर्व चराचरम् ॥
भावार्थ:- हे प्रभु जगन्नाथ! आपके निन्द्रा में जाने से संपूर्ण जगत निन्द्रा में चला जाता है। और आपके जागने पर संपूर्ण चराचर जगत जाग्रत हो उठता हैं।
• इसके बाद देवशयनी एकादशी की कथा और माहात्म्य को पढ़ें या श्रवण करें। उसके बाद धूप-दीप से भगवान विष्णु की आरती करें और प्रसाद बांटें। ब्राह्मणों को भोजन करायें। उसके बाद स्वयं फलाहार करें।
• देवशयनी एकादशी की रात को भगवान विष्णु का भजन-कीर्तन करें और सोने से पूर्व भगवान विष्णु को शयन कराना चाहिए।
Dev Soni Gyaras Ki Katha
देवशयनी एकादशी की कथा
पौराणिक कथा के अनुसार महाभारत काल में धर्मराज युधिष्ठिर ने भगवान श्री कृष्ण से आषाढ़ मास की शुक्ल पक्ष की एकादशी के महत्व एवं व्रत की विधि के विषय में पूछा। तब भगवान श्रीकृष्ण ने उनसे कहा हे धर्मराज युधिष्ठिर! आषाढ़ मास की शुक्ल पक्ष की एकादशी को देवशयनी एकादशी और पद्मा एकादशी कहा जाता है। इस एकादशी के विषय में देव ऋषि नारद ने भगवान ब्रह्माजी से पूछा था और जो ब्रह्मा जी ने मुनिश्रेष्ठ नारद जी से कहा था वही सब मैं तुम से कहता हूँ। ध्यान से सुनों।
एक समय की बात है देव ऋषि नारदजी ने परमपिता ब्रह्माजी से पद्मा एकादशी के विषय में पूछा। तब ब्रह्माजी ने उन्हे बताया कि, हे नारद! तुमने मृत्युलोक में कलियुग में मनुष्य के उद्धार के आश्रय से बहुत उत्तम प्रश्न किया है। देवशयनी एकादशी का व्रत सौभाग्य प्रदान करने वाला है। यह व्रत सभी व्रतों में सबसे उत्तम है। देवशयनी एकादशी का व्रत करने से मनुष्य के सभी पाप नष्ट हो जाते हैं और उसे मोक्ष की प्राप्ति होती है। और जो मनुष्य इस व्रत को नहीं करते उन्हे नरक की यात्रा करनी पड़ती हैं।
फिर ब्रह्मा जी ने नारद जी को देवशयनी एकादशी की पौराणिक कथा सुनायी। जो इस प्रकार है।
ये सतयुग के समय की बात है अयोध्या नगरी में मांधाता नाम का एक बहुत ही प्रतापी सूर्यवंशी राजा हुआ करता था। वो सत्यवादी और बहुत ही न्यायप्रिय राजा था। उसे अपनी प्रजा से बड़ा प्रेम था वो अपनी प्रजा को अपनी संतान के समान ही मानता था और उसी प्रकार उसका पालन करता था। उसके राज्य में समस्त प्रजा खुश थी और उनके पास भरपूर धन-धान्य था और वो अपना जीवन सुख से व्यतीत करते थे।
एक बार राजा मांधाता के राज्य में अकाल और सूखा पड़ गया। तीन वर्षों तक वहाँ वर्षा नहीं हुई जिससे प्रजा के पास खाने के लिये भी अन्न नही बचा और सारी प्रजा भूख-प्यास से दुखी हो रही थी। अन्न और धन के अभाव के कारण समस्त यज्ञादि पुण्य कर्म बंद हो गए थे। चारों ओर सारी प्रजा त्राहि-त्राहि कर रही थी।
अपनी प्रजा के दुखों को देखकर राजा मांधाता भी चिंतित थे। वर्षा न होने के कारण जनता भूख और प्यास से मर रही थी। अपनी प्रजा के दुखों को दूर करने की इच्छा से राजा मांधाता जंगल- जंगल ऋषियों मुनियों के पास घूमते घूमते अंगिरा ऋषि के आश्रम में पहुंचे। अंगिरा ऋषि ब्रह्माजी के पुत्र थे। राजा मांधाता ने अंगिरा ऋषि के पास जाकर उनको प्रणाम किया।
ऋषि अंगिरा ने राजा मांधाता को आशीर्वाद दिया और उनसे उनके पास आने का प्रयोजन पूछा। तब राजा मांधाता ने श्रद्धा से उनके समक्ष हाथ जोड़कर बहुत ही नम्रता पूर्वक उनसे कहा, हे ऋषिवर! आप तो सब जानते है। मेरे राज्य में सारी प्रजा धर्म का पालन करती है, परन्तु फिर भी मेरे राज्य में सूखा पड़ गया है। और सारी प्रजा दुखी है। शास्त्रों के अनुसार यदि राजा कोई पाप कर्म करता है तो उसके पापों का फल भी प्रजा को भोगना पड़ता है। किंतु मैं भी पूरे धर्म से राज्य का पालन करता हूँ तो फिर मेरे राज्य में प्रजा को कष्ट क्यों भोगना पड़ा रहा है। यही मेरी समझ में नही आ रहा। मेरे इसी प्रश्न का उत्तर पाने के लिये मैं आपके पास आया हूँ। कृपा करके मेरा मार्गदर्शन करें।
मैं क्या करूँ? जिससे मेरी प्रजा के सभी दुखों और कष्टों का नाश हो जाये और वो सब पूर्व की भंति सुख से रहें। कृपा करके कोई उपाय बताइए। राजा मांधाता की सब बातें सुनकर ऋषि अंगिरा बोले, हे राजन! यह सतयुग है और यह युग सभी युगों में उत्तम है। सतयुग में धर्म के चारों चरण समाविष्ट है। अर्थात सतयुग में धर्म सबसे अधिक उन्नत है। लोग ईश्वर की उपासना करते हैं और सिर्फ ब्राह्मणों को ही वेदों के पठन-पाठन का अधिकार है। तपस्या करने का अधिकार भी सिर्फ ब्राह्मणों को ही हैं, किंतु आपके राज्य में एक शूद्र तप कर रहा है और यही वो दोष है जिसके कारण आपके राज्य में अकाल पड़ा है।
ऋषि अंगिरा ने कहा, हे राजन! यदि आप अपनी प्रजा की कुशलता चाहते हो तो उस शूद्र का वध कर दो। परन्तु राजा मांधाता ने उस निरपराध शूद्र का वध करने से मना कर दिया और कहा, हे ऋषिवर! मैं कैसे एक तपस्या करने वाले शूद्र का वध कर सकता हूँ। मैं ऐसा नही कर सकता कृपा करके कोई अन्य उपाय बताइये।
तब ऋषि अंगिरा ने कहा, हे राजन! इसका एक अन्य उपाय भी है जो मैं तुमसे कहता हूँ, ध्यान से सुनों। आषाढ़ मास की शुक्ल पक्ष की एकादशी जिसे देवशयनी एकादशी और पद्मा एकादशी के नाम से जाना जाता है, तुम उसका विधि विधान से नियम पूर्वक व्रत करो। पद्मा एकादशी के व्रत के प्रभाव से उस दोष का निवारण होगा और तुम्हारे राज्य में पहले की भांति वर्षा होगी। अन्न-धन की कोई कमी नही होगी। तुम्हारी प्रजा को सुख प्राप्त होगा। पद्मा एकादशी का व्रत सौभाग्य मे वृद्धि करने वाला, समस्त सिद्धियाँ प्रदान करने वाला और सभी बाधाओं का नाश करने वाला है। तुम इस एकादशी का व्रत अपनी प्रजा, सेवक तथा मंत्रियों के साथ करों।
ऋषि के ऐसे वचनों को सुनकर राजा को बहुत संतोष हुआ और उसने अपने नगर में वापस आकर प्रजा, सेवक तथा मंत्रियों के साथ विधिपूर्वक पद्मा एकादशी का व्रत और पूजन किया। इस व्रत के प्रभाव से राज्य में वर्षा हुई और प्रजा के दुखों का नाश हुआ।
पद्मा एकादशी का व्रत सभी मनुष्यों को अवश्य करना चाहिए। इस व्रत के प्रभाव से मनुष्य इस लोक में सुख भोगकर और अंत मे मोक्ष को प्राप्त करता है। इस कथा को पढ़ने और श्रवण करने से ही मनुष्य के सभी पाप नष्ट हो जाते हैं।
॥ बोलो भगवान विष्णु की जय ॥