वामन जयंती (Vamana Jayanti) का व्रत करने से पूर्ण होती है सभी मनोकामनायें। जानियें वामन जयंती कब है?, इसका क्या महत्व है?, वामन द्वादशी (Vamana Dwadashi) व्रत की क्या विधि है?, उद्यापन की क्या विधि है? और साथ ही पढ़ियें वामन जयंती की कथा (Vamana Jayanti Ki Katha)…
Vamana Jayanti 2024 (Vamana Dwadashi)
वामन जयंती 2024 (वामन द्वादशी)
भाद्रपद माह (भादों) की शुक्लपक्ष की द्वादशी की तिथि को वामन द्वादशी (Vamana Dwadashi) मनायी जाती हैं। इसे वामन जयंती (Vamana Jayanti) भी कहा जाता हैं। श्रीमद्भागवत पुराण के अनुसार इस दिन अभिजीत मुहूर्त में भगवान विष्णु ने देवताओं की सहायतार्थ वामन रूप में अवतार लिया था।
Vamana Jayanti Kab Hai?
वामन जयंती कब हैं?
इस वर्ष वामन जयंती (Vamana Jayanti) 15 सितम्बर, 2024 रविवार के दिन मनायी जायेगी।
Significance Of Vamana Jayanti
वामन जयंती के व्रत का महत्व
हिंदु मान्यताओं के अनुसार वामन जयंती का व्रत (Vamana Jayanti Vrat) एवं पूजन करने से जातक की सभी मनोकामनायें पूर्ण होती हैं। भगवान विष्णु के अवतार भगवान वामन अपने भक्तों के सभी कष्टों का नाश करते हैं। और उनके सभी कार्य सिद्ध होते हैं।
श्रद्धा और भक्ति के साथ भगवान वामन की व्रत एवं पूजा अर्चना करने से साधक को भगवान विष्णु की कृपा प्राप्त होती हैं। साधक की सभी समस्यायें समाप्त हो जाती हैं। इस दिन ब्राह्मणों को दान देने और फलाहार कराने से महान पुण्य प्राप्त होता हैं। इस व्रत को करने से मनुष्य जन्म-मृत्यु के चक्र से छूटकर स्वर्ग को प्राप्त करता हैं।
Vamana Jayanti Ke Vrat Ki Vidhi
वामन जयंती के व्रत की विधि
वामन जयंती की पूजा (Vamana Jayanti Ki Puja) संध्या के समय किये जाने का प्रचलन हैं –
- वामन जयंती (Vamana Jayanti) के दिन भगवान विष्णु के वामन अवतार की पूजा अर्चना कि जाती हैं।
- इस दिन प्रात:काल स्नानादि नित्यक्रिया से निवृत्त होकर स्वच्छ वस्त्र धारण करें।
- फिर संध्या के समय पूजास्थान पर चौकी पर भगवान विष्णु के वामन स्वरूप की स्वर्ण या चांदी या अष्टधातु की मूर्ति स्थापित करें।
- प्रतिमा के सामने धूप-दीप जलायें।
- फिर स्वर्ण के पात्र में जल लेकर उससे भगवान वामन की मूर्ति को अर्ध्य दें। अर्ध्य देते समय इस मंत्र का पाठ करें –
नमस्ते पद्मनाभाय नमस्ते जलः सिने।
तुभ्यं प्रयच्छामि वाल यामन अर्पिणे ॥ 1 ॥
नमः शांग धनुर्पाणि पादये वामनाय च।
यज्ञभुव फलदात्रेय वामनाय नमो नमः ॥ 2 ॥
- फिर उनकी प्रतिमा को यज्ञोपवीत धारण करायें।
- तत्पश्चात फल और पुष्प अर्पित करके उन्हे मिठाई का भोग लगायें।
- इसके बाद वामन द्वादशी की कथा (Vamana Dwadashi Ki Katha) पढ़ें या सुनें।
- इस दिन उपवास करें। दिन में एक ही समय फलाहार करें।
- भगवान वामन को भोग लगाने बाद ब्राह्मणों को दही, चावल, चीनी, शरबत का दान करें और उन्हे सामर्थ्य अनुसार दक्षिणा देंकर संतुष्ट करें।
विष्णुसहस्रनाम (Vishnu Sahasranam) का पाठ करने के लिये क्लिक करें।
Vamana Dwadashi Ke Vrat Ki Udyapan Vidhi
वामन द्वादशी के व्रत की उद्यापन विधि
वामन जयंती (Vamana Jayanti) के दिन व्रत के उद्यापन के लिये उपरोक्त विधि से पूजन करने के पश्चात् उद्यापन के लिये ब्राह्मणों को एक माला, दो गौमुखी कमण्डल, लाठी, आसन, श्रीमद्भगवतगीता, फल, छतरी, चरण पादुका (खड़ाऊँ) के साथ सामर्थ्यानुसार दक्षिणा देकर विदा करें।
Vamana Jayanti Ki Kahani
वामन जयंती के व्रत की कहानी
पौराणिक कथा के अनुसार भक्त प्रहलाद के पौत्र राक्षसराज बलि ने अपनी शक्ति और दैत्यगुरू शुक्राचार्य के मार्गदर्शन से देवराज इंद्र और अन्य देवताओं को युद्ध में पराजित करके स्वर्ग लोक पर अधिकार कर लिया। स्वर्ग से निष्कासित होकर देवराज इंद्र अपनी माता अदिति की शरण में गये। देवताओं के राजा की ऐसी अवस्था को देखकर उनकी माता को बहुत दुख हुआ। अपने पुत्र पर आये उस संकट को दूर करने की इच्छा से माता अदिति ने अपने पति ऋषि कश्यप से सहायता माँगी। तब ऋषि कश्यप ने अपनी पत्नी अदिति को भगवान विष्णु के अतिविशेष और दुर्लभ पयोव्रत का अनुष्ठान करने की सलाह दी। तब भगवान विष्णु को प्रसन्न करने के लिये माता अदिति ने उस व्रत का अनुष्ठान किया और कठिन तपस्या आरम्भ कर दी। उस व्रत के प्रभाव और उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान विष्णु ने माता अदिति को कर्शन देकर उनसे वर माँगने के लिये कहा। तब माता अदिति ने भगवान विष्णु से देवताओं की सहायता करके उन्हे पुन:स्वर्ग में स्थापित करने की इच्छा व्यक्त करी। तब भगवान विष्णु ने माता अदिति से कहा, “आप व्यर्थ में परेशान ना हो। स्वर्ग देवताओं का हैं और वो उसे पुन: प्राप्त करेंगे। मैं आपके पुत्र के रूप में जन्म लेकर देवराज इंद्र का अनुज बनकर उनकी सहायता करूँगा। और उन्हे पुन: स्वर्ग के सिन्हासन पर स्थापित करूंगा।“ माता अदिति को मनोवांछित वर प्रदान करके भगवान अन्तर्ध्यान हो गये।
भगवान ने माता अदिति के गर्भ से वामन द्वादशी (Vamana Dwadashi) के दिन अभिजीत मुहूर्त में वामन अवतार लिया। भगवान विष्णु को पुत्र रूप में पाकर माता अदिति कृतार्थ हो गई और देवताओं-ऋषि-मुनियों की खुशी का ठिकाना नही रहा। भगवान विष्णु के वामन रूप में अवतार लेने से पूरी पृथ्वी पर आनंद छा गया था। माता अदिति के गर्भ से जन्म लेकर भगवान विष्णु इंद्र के अनुज बने। इसलिये भगवान विष्णु का एक नाम उपेंद्र भी हैं। ऋषि कश्यप ने भगवान वामन का उपनयन संस्कार किया। वामन अवतार में भगवान की ऊचाँई मात्र बावन अंगुल ही थी। उधर राजा बलि ने अपने गुरू शुक्राचार्य के कहने पर भृगुकच्छ नाम के स्थान पर अश्वमेघ यज्ञ का आयोजन किया। तब भगवान वामन को यह समाचार मिला तो वो यज्ञ के स्थान पर पहुँच गये। शीष पर जटा, बगल में मृगचर्म, कमर में मूज और यज्ञोपवीत धारण करके ब्रह्मचारी के रूप में भगवान वामन यज्ञ के स्थान पर पहुँच गये। उनका दिव्यरूप सबको अपनी ओर आकर्षित कर रहा था। उन्हे देखकर सब आनंद का अनुभव कर रहे थे। भगवान वामन के दिव्य तेज से पूरी यज्ञशाला प्रकाशमान हो रही थी। इतने तेजस्वी ब्राह्मण को यज्ञ मे आया देखकर राजा बलि ने उनका सत्कार किया, उन्हे आसन पर बिठाकर उनकी चरण वंदना करके उन्हे दान में धन देना चाहा परंतु भगवान वामन ने धन लेने से मना कर दिया। तब उसने उनसे उनकी इच्छा पूछी तो भगवान वामन ने उनसे तीन पग भूमि देने के लिये कहा।
राजा बलि ने उनसे और अधिक माँगने के लिये कहा। परंतु भगवान अपनी बात पर स्थिर रहें और राजा बलि से कहा- यदि तुम मुझे कुछ देना चाहते हो तो मुझे मेरे तीन पग जितनी भूमि दो। शुक्राचार्य वामन रूप मे आये भगवान विष्णु को पहचान गये। उन्होने राजा बलि को समझाया कि वो कोई साधारण ब्राह्मण नही हैं, स्वयं नारायण वामन रूप लेकर आये हैं। इसलिये वो उनकी बातों में ना आये। परंतु राजा बलि ने द्वार पर आये ब्राह्मण को बिना दान दिये भेजने से मना कर दिया। राजा बलि ने भगवान वामन को तीन पग भूमि देने के लिये संकल्प करने के लिये गंगासागर (जल का पात्र जिसमें पानी छोड़ने के लिये एक नली नुमा आकृति होती हैं) लिया तो शुक्राचार्य ने सूक्ष्म रूप लेकर उस जल के पात्र से जल छोड़ने वाली नली में प्रवेश करके उसे बंद कर दिया। वामन भगवान ने यह सब देख लिया उन्होने एक तिनका लेकर उस नली में ड़ालकर शुक्राचार्य की एक आँख फोड़ दी। शुक्राचार्य पीड़ा से चीखते हुये पात्र से बाहर आगये। तब राजा बलि ने तीन पग भूमि देने का संकल्प किया। राजा बलि के संकल्प का जल छोड़ते ही भगवान विष्णु ने विराट रूप धारण कर लिया। और देखते-देखते एक पग में पूरी पृथ्वी आकाश और दूसरे पग में स्वर्गादि समस्त लोकों को नाप लिया। फिर उन्होने राजा बलि से कहा राजन मैं तीसरा पग कहाँ रखूँ? तब राजा बलि ने उनसे कहा प्रभु सम्पत्ति का स्वामी सम्पत्ति से बड़ा होता है, इसलिये आप अपना तीसरा पग मेरे शीष पर रखों। राजा बलि की वचनपरायणता और भक्ति-भाव को देखकर वामन रूपधारी भगवान विष्णु उसपर प्रसन्न हो गये। और उन्होने अपना तीसरा पग राजा बलि के शीष पर रख दिया। तत्पश्चात् भगवान ने राजा बलि से वर माँगने के लिये कहा, तब राजा बलि ने उनसे कहा कि आप हमेशा मेरे साथ ही रहिये। मैं जब चाहूँ आपके दर्शन कर सकूँ, इसलिये आप मेरे द्वारपाल बन कर रहिये।
भगवान ने राजा बलि को पाताल लोक का राज दे दिया और स्वयं उसके द्वारपाल बनकर उसके साथ रहने चले गये। और देवराज इंद्र को पुन: स्वर्ग के सिंहासन पर बिठा दिया। इस प्रकार भगवान विष्णु ने उपेंद्र बनकर देवराज इंद्र की इच्छा पूर्ण करी। और राजा बलि की मनोकामना पूर्ण करी।