Shri Krishna Stotram (श्री कृष्ण स्तोत्रं) का नित्य पाठ करने से भगवान श्री कृष्ण प्रसन्न होते है

Shri Krishna Stotram; Shri Radha Krishan Image; Shri Krishna Stotram by Lord Shiva;

श्री कृष्ण स्तोत्रम् (Shri Krishna Stotram) का पाठ करके साधक बिना जप, बिना सेवा और बिना पूजा के भगवान श्री कृष्ण को प्रसन्न करके उनकी कृपा प्राप्त कर सकता है। इस दुर्लभ और गुप्त स्तोत्र के विषय में देवी पार्वती जी के अनुरोध पर भगवान शिव ने उन्हे बताया था। पढ़ियें श्री कृष्ण स्तोत्रं और साथ ही जानिये इसके लाभ एवं माहात्म्य…

Significance Of Shri Krishna Stotram
श्री कृष्ण स्तोत्रं का माहात्म्य

साधक बिना जप, बिना सेवा और बिना पूजा के भगवान श्री कृष्ण को कैसे प्रसन्न कर सकता है? जब यह प्रश्न देवी पार्वती जी ने भगवान शिव से पूछा तो उन्होने इस श्री कृष्ण स्तोत्र के विषय में उन्हे बताया। इस कलियुग में जब लोगों में धर्म के प्रति आस्था कम हो रही है ऐसे समय में बहुत ही आसान से प्रयास से कैसे मनुष्य भगवान श्री कृष्ण को प्रसन्न कर सकता है और उनकी कृपा पा सकता है? इस श्री कृष्ण स्तोत्रं (Krishna Stotra) का नित्य पाठ करके साधक बहुत ही सरलता से भगवान श्री कृष्ण की कृपा प्राप्त कर सकता है। इस स्तोत्र का पाठ करके साधक भगवान श्री कृष्ण की अनपायनी भक्ति को प्राप्त कर सकता है।

इसके अतिरिक्त देवऋषि नारद ने भी मनुष्यों की भलाई की भावना से श्री कृष्ण स्तोत्रं की रचना की थी। उसको पढ़ने के लिये यहाँ क्लिक करें।

Benefits Of Reading Shri Krishna Stotra
श्री कृष्ण स्तोत्रं के लाभ

शास्त्रों के अनुसार जप और सेवा आदि भी बिना स्तोत्र के सिद्ध नहीं होते। भगवान शिव और देवी पार्वती के संवाद में प्रकाशित इस श्री कृष्ण स्तोत्रं का नित्य पाठ करने से जातक बहुत ही सरलता से भगवान कृष्ण की कृपा प्राप्त कर सकता है। यह बहुत ही दुर्लभ और प्रभावशाली स्तोत्रों में से एक है। इस स्तोत्र के पाठ के द्वारा श्री कृष्ण की भक्ति करने से

  • साधक का हृदय परमानंद से भर जाता है।
  • बहुत ही आसानी से साधक अपने पापों से मुक्त होकर मोक्ष को प्राप्त होता है।
  • सेवा और समर्पण के भाव से भक्ति करने से साधक जीवन – मृत्यु के चक्र से छूट जाता है।
  • भगवान श्री कृष्ण प्रसन्न होते है और साधक को उनकी कृपा प्राप्त होती है।
  • धन-धान्य एवं सुख-समृद्धि की प्राप्ति होती है।
  • मान-सम्मान और ऐश्वर्य में वृद्धि होती है।
  • रोग–दोष-कष्ट एवं पाप नष्ट हो जाते है।
  • दुख- दरिद्रता का नाश होता है।
  • मोह-माया के बन्धनों से मुक्त होकर साधक ईश्वर की अनपायिनी भक्ति को प्राप्त करता है।
  • धरती के सुखों का आनन्द लेकर साधक अंत में परमगति को प्राप्त होता है।

When And How To Recite Shri Krishna Stotra?
श्री कृष्ण स्तोत्रं का पाठ कब और कैसे करें?

साधक को अपनी इन्द्रियों को वश में रखकर पूर्ण श्रद्धा – भक्ति के साथ इस स्तोत्र का पाठ करना चाहिये। तन-मन दोनों की शुद्धता के साथ पवित्र भाव से इस स्तोत्र का पाठ करें। सुबह या शाम कभी भी इस स्तोत्र का पाठ कर सकते है। स्नानादि नित्य क्रिया से निवृत्त होकर स्वच्छ वस्त्र धारण करके राधा-कृष्ण का ध्यान करें फिर श्री कृष्ण स्तोत्रं का पाठ करें।

Shri Krishna Stotram Lyrics

श्री कृष्ण स्तोत्रम्

पार्वत्युवाच –

भगवन् श्रोतुमिच्छामि यथा कृष्णः प्रसीदति ।
विना जपं विना सेवां विना पूजामपि प्रभो ॥ १॥

यथा कृष्णः प्रसन्नः स्यात्तमुपायं वदाधुना ।
अन्यथा देवदेवेश पुरुषार्थो न सिद्ध्यति ॥ २॥

शिव उवाच –

साधू पार्वति ते प्रश्नः सावधानतया श‍ृणु! ।
विना जपं विना सेवां विना पूजामपि प्रिये ॥ ३॥

यथा कृष्णः प्रसन्नः स्यात्तमुपायं वदामि ते ।
जपसेवादिकं चापि विना स्तोत्रं न सिद्ध्यति ॥ ४॥

कीर्तिप्रियो हि भगवान्वरात्मा पुरुषोत्तमः ।
जपस्तन्मयतासिद्ध्यै सेवा स्वाचाररूपिणी ॥ ५॥

स्तुतिः प्रसादनकरी तस्मात्स्तोत्रं वदामि ते ।
सुधाम्भोनिधिमध्यस्थे रत्नद्वीपे मनोहरे ॥ ६॥

नवखण्डात्मके तत्र नवरत्नविभूषिते ।
तन्मध्ये चिन्तयेद्रम्यं मणिगृहमनुत्तमम् ॥ ७॥

परितो वनमालाभिः ललिताभिः विराजिते ।
तत्र सञ्चिन्तयेच्चारु कुटिटमं सुमनोहरम् ॥ ८॥

चतुःषष्टया मणिस्तम्भैश्वतुदिक्ष विराजितम् ।
तव सिंहासने ध्यायेत्कृष्णं कमललोचनम् ॥ ९॥

अनर्घ्यरत्नजटितमुकुटोज्वलकुण्डलम् ।
सुस्मितं सुमुखाम्भोजं सखीवृन्दनिषेवितम् ॥ १०॥

स्वामिन्याश्लिष्टबामाङ्गं परमानन्दविग्रहम् ।
एवं ध्यात्वा ततः स्तोत्रं पठेत्सुविजितेन्द्रियः ॥ ११॥

। अथ स्तोत्रम् ।

कृष्णं कमलपत्राक्षं सच्चिदानन्दविग्रहम् ।
सखीयुथान्तरचरं प्रणमामि परात्परम् ॥ १२॥

शृङ्गाररसरूपाय परिपूर्णसुखात्मने ।
राजीवारुणनेत्राय कोटिकन्दर्परूपिणे ॥ १३॥

वेदाद्यगमरूपाय वेदवेद्यस्वरूपिणे ।
अवाङ्मनसविषयनिजलीलाप्रवर्त्तिने ॥ १४॥

नमः शुद्धाय पूर्णाय निरस्तगुणवृत्तये ।
अखण्डाय निरंशाय निरावरणरूपिणे ॥ १५॥

संयोगविप्रलम्भाख्यभेदभावमहाब्धये ।
सदंशविश्वरूपाय चिदंशाक्षररूपिणे ॥ १६॥

आनन्दांशस्वरूपाय सच्चिदानन्दरूपिणे ।
मर्यादातीतरूपाय निराधाराय साक्षिणे ॥ १७॥

मायाप्रपञ्चदूराय नीलाचलविहारिणे ।
माणिक्यपुष्परागाद्रिलीलाखेलप्रवर्त्तिने ॥ १८॥

चिदन्तर्यामिरूपाय ब्रह्मानन्दस्वरूपिणे ।
प्रमाणपथदूराय प्रमाणाग्राह्यरूपिणे ॥ १९॥

मायाकालुष्यहीनाय नमः कृष्णाय शम्भवे ।
क्षरायाक्षररूपाय क्षराक्षरविलक्षणे ॥ २०॥

तुरीयातीतरूपाय नमः पुरुषरूपिणे ।
महाकामस्वरूपाय कामतत्त्वार्थवेदिने ॥ २१॥

दशलीलाविहाराय सप्ततीर्थविहारिणे ।
विहाररसपूर्णाय नमस्तुभ्यं कृपानिधे ॥ २२॥

विरहानलसन्तप्त भक्तचित्तोदयाय च ।
आविष्कृतनिजानन्दविफलीकृतमुक्तये ॥ २३॥

द्वैताद्वैत महामोहतमःपटलपाटिने ।
जगदुत्पत्तिविलय साक्षिणेऽविकृताय च ॥ २४॥

ईश्वराय निरीशाय निरस्ताखिलकर्मणे ।
संसारध्वान्तसूर्याय पूतनाप्राणहारिणे ॥ २५॥

रासलीलाविलासोर्मिपूरिताक्षरचेतसे ।
स्वामिनीनयनाम्भोजभावभेदकवेदिने ॥ २६॥

केवलानन्दरूपाय नमः कृष्णाय वेधसे ।
स्वामिनीहृदयानन्दकन्दलाय तदात्मने ॥ २७॥

संसारारण्यवीथीषु परिभ्रान्तात्मनेकधा ।
पाहि मां कृपया नाथ त्वद्वियोगाधिदुःखिताम् ॥ २८॥

त्वमेव मातृपित्रादिबन्धुवर्गादयश्च ये ।
विद्या वित्तं कुलं शील त्वत्तो मे नास्ति किञ्चन ॥ २९॥

यथा दारुमयी योषिच्चेष्टते शिल्पिशिक्षया ।
अस्वतन्त्रा त्वया नाथ तथाहं विचरामि भोः ॥ ३०॥

सर्वसाधनहीनां मां धर्माचारपराङ्मुखाम् ।
पतितां भवपाथोधी परित्रातुं त्वमहंसि ॥ ३१॥

मायाभ्रमणयन्त्रस्थामूर्ध्वाधोभयविह्वलम् ।
अदृष्टनिजसकेतां पाहि नाथ दयानिधे ॥ ३२॥

अनर्थेऽर्थदृशं मूढां विश्वस्तां भयदस्थले ।
जागृतव्ये शयानां मामुद्धरस्व दयापरः ॥ ३३॥

अतीतानागत भवसन्तानविवशान्तराम् ।
बिभेमि विमुखी भूय त्वत्तः कमललोचन ॥ ३४॥

मायालवणपाथोधिपयःपानरतां हि माम् ।
त्वत्सान्निध्यसुधासिन्धुसामीप्य नय माऽचिरम् ॥ ३५॥

त्वद्वियोगार्तिमासाद्य यज्जीवामीति लज्जयः ।
दर्शयिष्ये कथ नाथ मुखमेतद्विडम्बनम् ॥ ३६॥

प्राणनाथ वियोगेऽपि करोमि प्राणधारम् ।
अनौचिती महत्येषा किं न लज्जयतीह माम् ॥ ३७॥

किं करोमि क्व गच्छामि कस्याग्रे प्रवदाम्यहम् ।
उत्पद्यन्ते विलीयन्ते वृत्तयोब्धो यथोर्मयः ॥ ३८॥

अहं दुःखाकुली दीना दुःखहा न भवत्परः ।
विज्ञाय प्राणनाथेदं यथेच्छसि तथा कुरु ॥ ३९॥

ततश्च प्रणमेत्कृष्णं भूयो भूयः कृताञ्जलिः ।
इत्येतद्गुह्यमाख्यातं न वक्तव्यं गिरीन्द्रजे ॥ ४०॥

एवं यः स्तोति देवेशि त्रिकालं विजितेन्द्रियः ।
आविर्भवति तच्चित्ते प्रेमरूपी स्वयं प्रभुः ॥ ४१॥

। इति माहेश्वरतन्त्रे उत्तरखण्डे एवं ज्नानखण्डे शिवोमासंवादे सप्तचत्वारिंशपटलं श्रीकृष्णस्तोत्रं सम्पूर्णम् ।