सप्तशती न्यास (Saptashati Nyasah) विधि और मंत्रों के लिये पढ़ें

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सप्तशती न्यास (Saptashati Nyasah) नवार्ण विधि के बाद किया जाता है। यह न्यास दुर्गा सप्तशती के प्रथम अध्याय से पूर्व किया जाने वाला अन्तिम अनुष्ठान है। इस न्यास के अनुष्ठान के पश्चात् दुर्गा सप्तशती का प्रथम अध्याय प्रारम्भ होता है।

Saptashati Nyasah
सप्तशती न्यासः

॥ सप्तशतीन्यासः ॥

तदनन्तर सप्तशती के विनियोग, न्यास और ध्यान करने चाहिये। न्यास की प्रणाली पूर्ववत् है-

॥ विनियोगः ॥

प्रथममध्यमोत्तरचरित्राणां ब्रह्मविष्णुरुद्रा ऋषयः,श्रीमहाकालीमहालक्ष्मीमहासरस्वत्यो देवताः, गायत्र्युष्णिगनुष्टुभश्‍छन्दांसि, नन्दाशाकम्भरीभीमाः शक्तयः,रक्तदन्तिकादुर्गाभ्रामर्यो बीजानि, अग्निवायुसूर्यास्तत्त्वानि, ऋग्यजुःसामवेदा ध्यानानि, सकलकामनासिद्धये श्रीमहाकालीमहालक्ष्मीमहासरस्वतीदेवताप्रीत्यर्थे जपे विनियोगः।

ॐ खड्‌गिनी शूलिनी घोरा गदिनी चक्रिणी तथा।
शङ्खिनी चापिनी बाणभुशुण्डीपरिघायुधा॥ ॥अङ्गुष्ठाभ्यां नमः॥

ॐ शूलेन पाहि नो देवि पाहि खड्गेन चाम्बिके।
घण्टास्वनेन नः पाहि चापज्यानिःस्वनेन च॥ ॥तर्जनीभ्यां नमः॥

ॐ प्राच्यां रक्ष प्रतीच्यां च चण्डिके रक्ष दक्षिणे।
भ्रामणेनात्मशूलस्य उत्तरस्यां तथेश्‍वरि॥ ॥ मध्यमाभ्यां नमः॥

ॐ सौम्यानि यानि रूपाणि त्रैलोक्ये विचरन्ति ते।
यानि चात्यर्थघोराणि तै रक्षास्मांस्तथा भुवम्॥ ॥ अनामिकाभ्यां नमः॥

ॐ खड्गशूलगदादीनि यानि चास्त्राणि तेऽम्बिके।
करपल्लवसङ्गीनि तैरस्मान् रक्ष सर्वतः॥ ॥कनिष्ठिकाभ्यां नमः॥

ॐ सर्वस्वरूपे सर्वेशे सर्वशक्तिसमन्विते।
भयेभ्यस्त्राहि नो देवि दुर्गे देवि नमोऽस्तु ते॥ ॥करतलकरपृष्ठाभ्यां॥

ॐ खड्‌गिनी शूलिनी घोरा॰ – हृदयाय नमः।
ॐ शूलेन पाहि नो देवि॰ – शिरसे स्वाहा।
ॐ प्राच्यां रक्ष प्रतीच्यां च॰ – शिखायै वषट्।
ॐ सौम्यानि यानि रूपाणि॰ – कवचाय हुम्।
ॐ खड्गशूलगदादीनि॰ – नेत्रत्रयाय वौषट्।
ॐ सर्वस्वरूपे सर्वेशे॰ – अस्त्राय फट्।

॥ ध्यानम् ॥

ॐ विद्युद्दामसमप्रभां मृगपतिस्कन्धस्थितां भीषणां
कन्याभिः करवालखेटविलसद्धस्ताभिरासेविताम्।
हस्तैश्‍चक्रगदासिखेटविशिखांश्‍चापं गुणं तर्जनीं
बिभ्राणामनलात्मिकां शशिधरां दुर्गां त्रिनेत्रां भजे॥

सप्तशती न्यास के पश्चात् प्रथम चरित्र का विनियोग और ध्यान करके “मार्कण्डेय उवाच” से दुर्गा सप्तशती का पाठ आरम्भ करें। प्रत्येक चरित्र का विनियोग मूल सप्तशती के साथ ही दिया गया है तथा प्रत्येक अध्याय के आरम्भ में अर्थ के साथ ध्यान भी दिया गया है। सप्तशती का पाठ भगवती का ध्यान करते हुए प्रेमपूर्वक करें। मीठे स्वर में, अक्षरों का स्पष्ट उच्चारण करते हुये, पदों का विभाग, उत्तम स्वर, धीरता के साथ, एक लय के साथ बोलना – ये सभी पाठकों के गुण हैं। जो पाठ करते समय रागपूर्वक गाता है, उच्चारण में शीघ्रता करता है, सिर को हिलाता है, अपनी हाथ से लिखी हुई पुस्तक पर पाठ करता है, अर्थ की जानकारी नहीं रखता और अधूरा ही मन्त्र कण्ठस्थ करता है, वह पाठ करने वालों में अधम माना गया है। जब तक अध्याय की पूर्ति न हो, तब तक बीच में पाठ बन्द न करें। यदि प्रमादवश अध्याय के बीच में पाठ का विराम हो जाये तो पुनः प्रति बार पूरे अध्याय का पाठ करें।

अज्ञानवश पुस्तक हाथ में लेकर पाठ करने का फल आधा ही होता है। स्तोत्र का पाठ मानसिक नहीं, वाचिक होना चाहिये। वाणी से उसका स्पष्ट उच्चारण ही उत्तम माना गया है। परंतु बहुत जोर-जोर से बोलना तथा पाठ में उतावली करना वर्जित है। पाठकों को यत्नपूर्वक शुद्ध एवं स्थिर चित्त से पाठ करना चाहिये। यदि पाठ कण्ठस्थ न हो तो पुस्तक से करें। अपने हाथ से लिखे हुए अथवा ब्राह्मणेतर पुरुष के लिखे हुए स्तोत्र का पाठ न करें। यदि एक सहस्र से अधिक श्‍लोकों का या मन्त्रों का ग्रन्थ हो तो पुस्तक देखकर ही पाठ करें। इससे कम श्‍लोक हों तो उन्हें कण्ठस्थ करके बिना पुस्तक के भी पाठ किया जा सकता है। अध्याय समाप्त होने पर “इति”, “वध”, “अध्याय” तथा “समाप्त” शब्द का उच्चारण नहीं करना चाहिये। इनके स्थान पर अध्याय की पूर्ति होने पर इस प्रकार कहना चाहिये – “ श्रीमार्कण्डेयपुराणे सावर्णिके मंवंतरे देवीमाहात्म्ये प्रथम: ॐ तत्सत् ।“ इसी प्रकार से द्वितीय:, तृतीय: आदि कहकर समाप्त करना चाहिये।

नोट : सप्तशतीन्यास: (Saptashati Nyasah) के बाद दुर्गा सप्तशती के प्रथम अध्याय का पाठ किया जाता है।

दुर्गा सप्तशती (चण्डी पाठ) से पहले किये जाने वाले स्तोत्रों और न्यास का क्रम इस प्रकार से है –