मुंगलिया की कथा
बहुत समय पहले की बात है एक गाँव मे एक बुढ़िया अपने पुत्र के
साथ रहती थी। वह मंगल देव को ही अपना इष्ट देवता मानती थी
वह हर मंगलवार को व्रत रखती और मंगलदेव का पूजन करती थी।
उसके पुत्र का नाम भी उसने मंगलिया रखा था क्योकि उसका जन्म मंगलवार
के दिन हुआ था।
मंगलवार के दिन वहा व्रत रखती और न तो अपना घर लीपती
और न ही धरती खोदती थी। एक मंगलवार को मंगल देव उसकी भक्ति की
परीक्षा लेने की इच्छा से उसके घर में साधु का रूप धारण करके आये। द्वार पर आकर
बुढ़िया को आवाज दी। बुढ़िया ने साधु को प्रणाम किया और उनसे आने का प्रयोजन
पूछा। साधु ने उत्तर दिया की मुझे बहुत भूख लगी है, मुझे भोजन बनाना है।
इसलिए तू थोड़ी-सी धरती को लीप दे। तुझे बहुत पुण्य प्राप्त होगा।
यह सुन बुढ़िया ने उत्तर दिया- महाराज! मेरा आज मंगलवार का व्रत है। मैं आज
धरती को लीप नहीं सकती। आप कहो तो जल छिड़क कर धरती को गीला
कर सकती हूँ। आप उस पर भोजन बना लिजिये। साधु बोले – मैं गोबर से लिपे चौके
पर ही खाना बनाता हूँ। बुढ़िया ने कहा- धरती लीपने के अलावा और कोई सेवा हो
तो मैं जरूर कर सकती हूँ। तब साधु ने उससे कहा कि सोच – विचार करके उत्तर देना।
मैं जो कहूँगा वो तुम्हे मानना होगा। बुढ़िया ने उत्तर दिया कि महाराज धरती को लीपने
के अलावा आप जो भी आदेश देंगे मैं उसका पालन अवश्य करूँगी। मैं वचन देती हूँ।
साधु ने कहा कि तू अपने पुत्र को बुलाकर उल्टा लिटा दे, मैं उसकी पीठ ही पर
अपना भोजन बना लूँगा। साधु की बात सुनकर बुढ़िया के होश उड गये और वो चुप हो गई।
तब साधु ने उसे उसका वचन स्मरण कराया और कहा- अब क्या सोच रही है? अपने
पुत्र को बुला। वृद्धा ने अपने पुत्र मंगलिया को आवाज लगाई। आवाज सुनकर उसका
पुत्र आ गया। बुढ़िया ने उससे कहा की जा बेटा साधु बाबा तुझे बुला रहे हैं।
लड़के ने साधु से पूछा- मैं आपकी क्या सेवा कर सकता हूँ? साधु ने उसे अपनी
बुलाने को कहा। जब बुढिया आ गई तो साधु ने उससे कहा कि
तू अपने पुत्र को यहाँ लिटा दे।
बुढिया ने मंगल देव का ध्यान करके अपने
पुत्र को उलटा लिटा दिया और उसकी पीठ पर चूल्हा रख दिया।
फिर बोली महाराज अब जो करना है कीजिए। ऐसा कहकर वो घर के अंदर चली गई।
साधु ने लड़के की पीठ पर रखे चूल्हे में आग जलाई और उस पर भोजन बनाया।
भोजन बनने के बाद साधु ने बुढिया को बुलाया और कहा कि अपने पुत्र को भोग लेने
के लिये बुलाए। बुढ़िया बोली – कैसे आश्चर्य की बात है कि अभी आपने उसकी
पीठ पर आग जला कर अपना भोजन बनाया और अब उसी को प्रसाद के लिए बुला रहे हो।
अब उसका जीवित होना असंभव हैं। साधु के फिर आग्रह किया तो वो बोली कि आप
अब मुझे उसकी याद मत दिलाओ और भोग लगाकर प्रस्थान किजिये। साधु के बार बार
कहने पर बुढ़िया ने नाम लेकर अपने पुत्र को आवाज लगाई तो उसका पुत्र दौड़ता हुआ
सामने आ गया। साधु ने उसको प्रसाद दिया और कहा – हे माता तेरा व्रत सफल हुआ।
तुम्हारी भक्ति और तुम्हारी अपने इष्ट देव के प्रति अपार श्रद्धा देखकर मैं तुम्हे आशिर्वाद
देता हूँ कि तुम्हे कभी कोई कष्ट नहीं होगा। तुम्हारे सभी दुखों और कष्टों का नाश
हो जायेगा।
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हनुमान जी / मंगलवार के व्रत की आरती
आरती कीजै हुनुमान लला की। दुष्ट दलन रघुनाथ कला की॥
जाके बल से गिरवर काँपे। रोग दोष जाके निकट न झाँके॥
अंजनी पुत्र महा बलदाई। सन्तन के प्रभु सदा सहाई ॥
दे बीड़ा रघुनाथ पठाये । लंका जारि सिया सुधि लाये ॥
लंका सो कोट समुद्र सी खाई। जात पवनसुत बार न लाई॥
लंका जारि असुर संहारे। सियारामजी के काज संवारे ॥
लक्ष्मण मूर्च्छित पड़े सकारे। लाय संजीवन प्राण उबारे ॥
पैठि पाताल तोरि जम कारे। अहिरावण की भुजा उखारे।
बाएँ भुजा असुर दल मारे । दाहिने भुजा संत जन तारे।
सुर नर मुनि जन आरती उतारें । जै जै जै हनुमान उचारें।
कंचन थार कपूर लौ छाई। आरती करत अंजना माई।॥
जो हनुमान जी की आरती गावै। बसि बैकुंठ परमपद पावै ॥