दुर्गा सप्तशती (Durga Saptashati) को देवी महात्म्य और चंडी पाठ के नाम से भी जाना जाता है। दुर्गा सप्तशती मार्कंडेय पुराण का हिस्सा है। इसकी रचना ऋषि मार्कंडेय द्वारा की गयी है। इस पाठ का हिंदू धर्म में बहुत महत्व है। इस पाठ में देवी दुर्गा की राक्षस महिषासुर पर विजय का वर्णन किया गया है। पढ़ियेंं दुर्गा सप्तशती पाठ की विधि और क्रम…
Shri Durga Saptashati Path Vidhi
श्री दुर्गा सप्तशती पाठ विधि
शास्त्रों में श्री दुर्गा सप्तशती (Durga Saptashati) का पाठ करने की विधि एक विशिष्ट विधि बताई गयी है। इस विधि के अनुसार ही दुर्गा सप्तशती का पाठ करना चाहिये। सम्पूर्ण विधि – विधान से पाठ करने से साधक को इस चमत्कारिक दुर्लभ पाठ का पूर्ण फल मिलता है। दुर्गा सप्तशती पाठ करने की विधि इस प्रकार है –
- स्नानादि नित्यक्रिया से निवृत्त होकर स्वच्छ वस्त्र धारण करें। देवी पाठ में पवित्रता का बहुत महत्व है। विचार और शरीर दोनों की पवित्रता का ध्यान रखें।
- सर्वप्रथम आसन शुद्धि मंत्र के द्वारा आसन शुद्धि की प्रक्रिया पूर्ण करें।
- फिर पूजा स्थान पर एक चौकी पर लाल वस्त्र बिछाकर उस पर एक जल से भरा कलश, पूजन सामग्री के साथ दुर्गा सप्तशती की पुस्तक रखें।
- आसन पर पूर्व दिशा की मुख करके बैठ जाये और अपने माथे स्वेच्छा से भस्म, चंदन अथवा रोली का तिलक करें। अगर आप शिखा (चोटी) रखते है तो उसे बाँध कर तत्व शुद्धि के लिए निम्न मंत्रों को चार बार बोल कर आचमन करें।
मंत्र – ॐ ऐं आत्मतत्त्वं शोधयामि नमः स्वाहा।
ॐ ह्रीं विद्यातत्त्वं शोधयामि नमः स्वाहा॥
ॐ क्लीं शिवतत्त्वं शोधयामि नमः स्वाहा।
ॐ ऐं ह्रीं क्लीं सर्वतत्त्वं शोधयामि नमः स्वाहा॥
- इसके बाद प्राणायाम करें और फिर भगवान गणेश आदि देवताओं और अपने गुरुजनों को प्रणाम करें। तत्पश्चात् हाथ में कुश की पवित्री धारण करें। पवित्री धारण करने के लिये ‘पवित्रेस्थो वैष्णव्यौ’ आदि मन्त्र का उच्चारण करें। फिर हाथ में लाल फूल, अक्षत और जल लेकर इस नीचे लिखे अनुसार संकल्प करें-
ॐ विष्णुर्विष्णुर्विष्णुः। ॐ नमः परमात्मने, श्रीपुराणपुरुषोत्तमस्य श्रीविष्णोराज्ञया प्रवर्तमानस्याद्य श्रीब्रह्मणो द्वितीयपरार्द्धे श्रीश्वेतवाराहकल्पे वैवस्वतमन्वन्तरेऽष्टाविंशतितमे कलियुगे प्रथमचरणे जम्बूद्वीपे भारतवर्षे भरतखण्डे आर्यावर्तान्तर्गतब्रह्मावर्तैकदेशे पुण्यप्रदेशे बौद्धावतारे वर्तमाने यथानामसंवत्सरे अमुकामने महामांगल्यप्रदे मासानाम् उत्तमे अमुकमासे अमुकपक्षे अमुकतिथौ अमुकवासरान्वितायाम् अमुकनक्षत्रे अमुकराशिस्थिते सूर्ये अमुकामुकराशिस्थितेषु चन्द्रभौमबुधगुरुशुक्रशनिषु सत्सु शुभे योगे शुभकरणे एवं गुणविशेषणविशिष्टायां शुभ पुण्यतिथौ सकलशास्त्र श्रुति स्मृति पुराणोक्त फलप्राप्तिकामः अमुकगोत्रोत्पन्नः अमुक नाम अहं ममात्मनः सपुत्रस्त्रीबान्धवस्य श्रीनवदुर्गानुग्रहतो ग्रहकृतराजकृतसर्व-विधपीडानिवृत्तिपूर्वकं नैरुज्यदीर्घायुः पुष्टिधनधान्यसमृद्ध्यर्थं श्री नवदुर्गाप्रसादेन सर्वापन्निवृत्तिसर्वाभीष्टफलावाप्तिधर्मार्थ- काममोक्षचतुर्विधपुरुषार्थसिद्धिद्वारा श्रीमहाकाली-महालक्ष्मीमहासरस्वतीदेवताप्रीत्यर्थं शापोद्धारपुरस्परं कवचार्गलाकीलकपाठ- वेदतन्त्रोक्त रात्रिसूक्त पाठ देव्यथर्वशीर्ष पाठन्यास विधि सहित नवार्णजप सप्तशतीन्यास- धन्यानसहितचरित्रसम्बन्धिविनियोगन्यासध्यानपूर्वकं च ‘मार्कण्डेय उवाच॥ सावर्णिः सूर्यतनयो यो मनुः कथ्यतेऽष्टमः।’ इत्याद्यारभ्य ‘सावर्णिर्भविता मनुः’ इत्यन्तं दुर्गासप्तशतीपाठं तदन्ते न्यासविधिसहितनवार्णमन्त्रजपं वेदतन्त्रोक्तदेवीसूक्तपाठं रहस्यत्रयपठनं शापोद्धारादिकं च किरष्ये।
- इस प्रकार संकल्प करने के उपरांत देवी का ध्यान करते हुए पंचोपचार की विधि से दुर्गा सप्तशती की पुस्तक की पूजा करें। पुस्तक की पूजा का मंत्र:
ॐ नमो देव्यै महादेव्यै शिवायै सततं नम:।
नम: प्रकृत्यै भद्रायै नियता: प्रणता: स्म ताम् ॥
- योनिमुद्रा का प्रदर्शन करके माँ भगवती को प्रणाम करें । इसके बाद मूल नवार्ण मन्त्र से पीठ आदि में आधारशक्ति की स्थापना करके उसके ऊपर दुर्गा सप्तशती की पुस्तक को विराजमान करें। पुस्तक स्थापित करने का मंत्र –
मंत्र: ध्यात्वा देवीं पञ्चपूजां कृत्वा योन्या प्रणम्य च।
आधारं स्थाप्य मूलेन स्थापयेत्तत्र पुस्तकम् ॥
- तत्पश्चात् शापोद्धार करना चाहिए। शापोद्धार के अनेक प्रकार हैं। आदि और अन्त में इस शापोद्धार मंत्र का सात बार जाप करें। मंत्र – ॐ ह्रीं क्लीं श्रीं क्रां क्रीं चण्डिकादेव्यै शापनाशागुग्रहं कुरु कुरु स्वाहा।
- उत्कीलन मन्त्र का जाप इसके अनन्तर किया जाता है। आदि और अन्त में उत्कीलन मन्त्र का जप इक्कीस-इक्कीस बार होता है।
मन्त्र – ॐ श्रीं क्लीं ह्रीं सप्तशति चण्डिके उत्कीलनं कुरु कुरु स्वाहा।
- इसके मंत्र के जाप के बाद मृतसंजीवनी विद्या का आदि और अन्त में सात-सात बार जप करना चाहिए। मंत्र – ॐ ह्रीं ह्रीं वं वं ऐं ऐं मृतसंजीवनि विद्ये मृतमुत्थापयोत्थापय क्रीं ह्रीं ह्रीं वं स्वाहा।
- मारीचकल्प के अनुसार सप्तशती – शाप विमोचन का मन्त्र इस प्रकार है – मंत्र – ॐ श्रीं श्रीं क्लीं हूं ॐ ऐं क्षोभय मोहय उत्कीलय उत्कीलय उत्कीलय ठं ठं।
- आरंभ में ही इस मन्त्र का एक सौ आठ बार जप करना चाहिए। इस मंत्र का जाप पाठ के अन्त में नहीं किया जाता। या आरंभ में ही रुद्रयामल महातन्त्र के अंतर्गत दुर्गाकल्प में कहे हुए चण्डिका-शाप-विमोचन मन्त्र का पाठ करना चाहिए। इस प्रकार से वह मन्त्र –
ॐ अस्य श्रीचण्डिकाया ब्रह्मवसिष्ठविश्वामित्रशापविमोचनमन्त्रस्य वसिष्ठ-नारदसंवादसामवेदाधिपतिब्रह्माण ऋषयः सर्वैश्वर्यकारिणी श्रीदुर्गा देवता चरित्रत्रयं बीजं ह्री शक्तिः त्रिगुणात्मस्वरूपचण्डिकाशापविमुक्तौ मम संकल्पितकार्यसिद्ध्यर्थे जपे विनियोगः।
ॐ (ह्रीं) रीं रेतःस्वरूपिण्यै मधुकैटभमर्दिन्यै
ब्रह्मवसिष्ठविश्वामित्रशापाद् विमुक्ता भव॥1॥
ॐ श्रीं बुद्धिस्वरूपिण्यै महिषासुरसैन्यनाशिन्यै
ब्रह्मवसिष्ठ विश्वामित्रशापाद् विमुक्ता भव॥2॥
ॐ रं रक्तस्वरूपिण्यै महिषासुरमर्दिन्यै
ब्रह्मवसिष्ठविश्वामित्रशापाद् विमुक्ता भव॥3॥
ॐ क्षुं धुधास्वरूपिण्यै देववन्दितायै
ब्रह्मवसिष्ठविश्वामित्रशापाद् विमुक्ता भव॥4॥
ॐ छां छायास्वरूपिण्यै दूतसंवादिन्यै
ब्रह्मवसिष्ठविश्वामित्रशापाद् विमुक्ता भव॥5॥
ॐ शं शक्तिस्वरूपिण्यै धूम्रलोचनघातिन्यै
ब्रह्मवसिष्ठविश्वामित्रशापाद् विमुक्ता भव॥6॥
ॐ तृं तृषास्वरूपिण्यै चण्डमुण्डवधकारिण्यै
ब्रह्मवसिष्ठविश्वामित्र शापाद् विमुक्ता भव॥7॥
ॐ क्षां क्षान्तिस्वरूपिण्यै रक्तबीजवधकारिण्यै
ब्रह्मवसिष्ठविश्वामित्रशापाद् विमुक्ता भव॥8॥
ॐ जां जातिस्वरूपिण्यै निशुम्भवधकारिण्यै
ब्रह्मवसिष्ठविश्वामित्रशापाद् विमुक्ता भव॥9॥
ॐ लं लज्जास्वरूपिण्यै शुम्भवधकारिण्यै
ब्रह्मवसिष्ठविश्वामित्रशापाद् विमुक्ता भव॥10॥
ॐ शां शान्तिस्वरूपिण्यै देवस्तुत्यै
ब्रह्मवसिष्ठविश्वामित्रशापाद् विमुक्ता भव॥11॥
ॐ श्रं श्रद्धास्वरूपिण्यै सकलफलदात्र्यै
ब्रह्मवसिष्ठविश्वामित्रशापाद् विमुक्ता भव॥12॥
ॐ कां कान्तिस्वरूपिण्यै राजवरप्रदायै
ब्रह्मवसिष्ठविश्वामित्रशापाद् विमुक्ता भव॥13॥
ॐ मां मातृस्वरूपिण्यै अनर्गलमहिमसहितायै
ब्रह्मवसिष्ठविश्वामित्रशापाद् विमुक्ता भव॥14॥
ॐ ह्रीं श्रीं दुं दुर्गायै सं सर्वैश्वर्यकारिण्यै
ब्रह्मवसिष्ठविश्वामित्रशापाद् विमुक्ता भव॥15॥
ॐ ऐं ह्रीं क्लीं नमः शिवायै अभेद्यकवचस्वरूपिण्यै
ब्रह्मवसिष्ठविश्वामित्रशापाद् विमुक्ता भव॥16॥
ॐ क्रीं काल्यै कालि ह्रीं फट् स्वाहायै ऋग्वेदस्वरूपिण्यै
ब्रह्मवसिष्ठविश्वामित्रशापाद् विमुक्ता भव॥17॥
ॐ ऐं ह्री क्लीं महाकालीमहालक्ष्मी-
महासरस्वतीस्वरूपिण्यै त्रिगुणात्मिकायै दुर्गादेव्यै नमः॥18॥
इत्येवं हि महामन्त्रान् पठित्वा परमेश्वर।
चण्डीपाठं दिवा रात्रौ कुर्यादेव न संशयः॥19॥
एवं मन्त्रं न जानाति चण्डीपाठं करोति यः।
आत्मानं चैव दातारं क्षीणं कुर्यान्न संशयः॥20॥
इस प्रकार से शापोद्धार करने के अनन्तर अन्तर्मातृका बहिर्मातृका आदि न्यास करें। तत्पश्चात् श्री देवी का ध्यान करके रहस्य में बताए अनुसार महालक्ष्मी आदि का पूजन नौ कोष्ठों वाले यन्त्र में करें, फिर उसके पश्चात् छ: अंगों सहित दुर्गासप्तशती का पाठ आरंभ करें।
कवच, अर्गला, कीलक और तीनों रहस्य – ये ही दुर्गा सप्तशती पाठ के छ: अंग माने जाते हैं। अलग –अलग पुस्तकों मे इनके क्रम में भी मतभेद हैं। जैसे कि चिदम्बरसंहिता में पहले अर्गला, फिर कीलक और अन्त में कवच पढ़ने का विधान बताया गया है। जबकि योगरत्नावली में पाठ का क्रम इससे अलग है। योगरत्नावली में कवच को बीज, अर्गला को शक्ति तथा कीलक को कीलक संज्ञा दी गई है।
विभिन्न तंत्रों में सप्तशती पाठ के भिन्न – भिन्न क्रम बतायें गये है। इस दशा में अपने देश में जो पहले की परम्परा के अनुसार पाठ का क्रम प्रचलित है उसी का अनुसरण करना उचित है। जिस प्रकार से सभी मंत्रों में पहले बीज का, फिर शक्ति का और अन्त में कीलक का उच्चारण होता है, उसी प्रकार से यहाँ भी पहले कवच रूप बीज का, फिर अर्गला रूपा शक्ति का तथा अन्त में कीलक रूप कीलक का क्रमशः पाठ होना चाहिए। यहाँ इसी क्रम का अनुसरण किया गया है।
उपरोक्त पूजन के बाद देवी कवच का पाठ करें।