देवी अथर्वशीर्षम् (Devi Atharvashirsh) का पाठ पापों का नाश करने वाला और मुश्किलों से पार लगाने वाला है। चण्डी पाठ (दुर्गा सप्तशती) के मूल पाठ से पहले किये जाने वाले छ: स्तोत्रों में यह एक प्रमुख स्तोत्र है। जानियें देवी अथर्वशीर्षम् का पाठ कब और कैसे करें? साथ ही पढ़ें इसके लाभ…
Devi Atharvashirsh
देवी अथर्वशीर्षम्
दुर्गा सप्तशती (Durga Saptashati) पाठ का क्रम इस प्रकार से है – पहले देवी कवच, फिर अर्गला स्तोत्रम्, उसके बाद कीलकम् स्तोत्र, फिर वेदोक्तम् रात्रि सूक्तम्, इसके पश्चात् तन्त्रोक्तम् रात्रि सूक्तम् और इसके बाद देव्यथर्वशीर्षम् स्तोत्रम् (Devi Atharvashirsh) पाठ किया जाता है। यह सभी छ: स्तोत्र चण्डी पाठ से पहले किये जाते है। यह सभी अति महत्वपूर्ण स्तोत्र है। इनके पाठ का विशेष महत्व बताया गया है। इन स्तोत्र के पाठ के बाद दुर्गा सप्तशती के मुख्य अध्यायों का पाठ किया जाता है। देवी अथर्वशीर्षम् के बाद नवार्ण मन्त्र का पाठ किया जाता है।
Benefits Of Devi Atharvashirsh
देवी अथर्वशीर्षम् के लाभ
पुराणों के अनुसार देवी अथर्वशीर्षम् (Devi Atharvashirsh) का पाठ करने से साधक को विशिष्ट फलों की प्राप्ति होती है। जो मनुष्य इस स्तोत्र का दस बार पाठ करता है वह तुरंत ही अपने किये सभी पापों से मुक्त हो जाता है। जो इसका पाठ संध्या के समय करता है उसके दिन में किये पापों का शमन होता है। जो इस स्तोत्र का पाठ प्रात:काल करता है उसके द्वारा रात्रि में किये पाप नष्ट हो जाते है। सुबह-शाम इस स्तोत्र का पाठ करने से मनुष्य पापरहित हो जाता है। इस स्तोत्र का पाठ करने से
- साधक सभी पापों से मुक्त हो जाता है।
- साधक को देवी की कृपा प्राप्त होती है।
- माँ की कृपा से मुश्किलों से आसानी से पार हो जाता है। हर कार्य सफलता पूर्वक सिद्ध हो जाता है।
- शत्रुओं का नाश होता है। माँ दुर्गा की कृपा से शत्रु उसका कुछ भी नही बिगाड़ सकता। साधक को शत्रु का कोई भय नही रहता, वो हमेशा अपने शत्रुओं पर विजय प्राप्त करता है।
- धन – सम्पत्ति और सुख – समृद्धि में वृद्धि होता है।
- दुख, दरिद्रता, भय, कष्ट और रोगों का नाश होता है।
- साधक को वाणी की सत्यता प्राप्त होती है।
- समस्त सुखों का भोग करके साधक मोक्ष को प्राप्त होता है।
Devyatharvashirsham
देव्यथर्वशीर्षम्
॥ श्रीदेव्यथर्वशीर्षम् ॥
ॐ सर्वे वै देवा देवीमुपतस्थुःकासि त्वं महादेवीति॥1॥
साब्रवीत् – अहं ब्रह्मस्वरूपिणी। मत्तः
प्रकृतिपुरुषात्मकं जगत्। शून्यं चाशून्यं च॥2॥
अहमानन्दानानन्दौ। अहं विज्ञानाविज्ञाने।अहं ब्रह्माब्रह्मणी वेदितव्ये।
अहं पञ्चभूतान्यपञ्चभूतानि।अहमखिलं जगत्॥3॥
वेदोऽहमवेदोऽहम्। विद्याहमविद्याहम्। अजाहमनजाहम्।
अधश्चोर्ध्वं च तिर्यक्चाहम्॥4॥
अहं रुद्रेभिर्वसुभिश्चरामि।अहमादित्यैरुत विश्वदेवैः।
अहं मित्रावरुणावुभौ बिभर्मि।अहमिन्द्राग्नी अहमश्विनावुभौ॥5॥
अहं सोमं त्वष्टारं पूषणं भगं दधामि।
अहं विष्णुमुरुक्रमं ब्रह्माणमुत प्रजापतिं दधामि॥6॥
अहं दधामि द्रविणं हविष्मतेसुप्राव्ये यजमानाय सुन्वते।
अहं राष्ट्री सङ्गमनी वसूनांचिकितुषी प्रथमा यज्ञियानाम्।
अहं सुवे पितरमस्य मूर्धन्ममयोनिरप्स्वन्तः समुद्रे।
य एवं वेद। सदैवीं सम्पदमाप्नोति॥7॥
ते देवा अब्रुवन् -नमो देव्यै महादेव्यै शिवायै सततं नमः।
नमः प्रकृत्यै भद्रायै नियताः प्रणताः स्म ताम्॥8॥
तामग्निवर्णां तपसा ज्वलन्तीं वैरोचनीं कर्मफलेषु जुष्टाम्।
दुर्गां देवीं शरणं प्रपद्यामहेऽसुरान्नाशयित्र्यै ते नमः॥9॥
देवीं वाचमजनयन्त देवास्तां विश्वरूपाः पशवो वदन्ति।
सा नो मन्द्रेषमूर्जं दुहाना धेनुर्वागस्मानुप सुष्टुतैतु॥10॥
कालरात्रीं ब्रह्मस्तुतां वैष्णवीं स्कन्दमातरम्।
सरस्वतीमदितिं दक्षदुहितरं नमामः पावनां शिवाम्॥11॥
महालक्ष्म्यै च विद्महे सर्वशक्त्यै च धीमहि।
तन्नो देवी प्रचोदयात्॥12॥
अदितिर्ह्यजनिष्ट दक्ष या दुहिता तव।
तां देवा अन्वजायन्त भद्रा अमृतबन्धवः॥13॥
कामो योनिः कमला वज्रपाणिर्गुहा हसा मातरिश्वाभ्रमिन्द्रः।
पुनर्गुहा सकला मायया च पुरूच्यैषा विश्वमातादिविद्योम्॥14॥
एषाऽऽत्मशक्तिः। एषा विश्वमोहिनी। पाशाङ्कुशधनुर्बाणधरा।
एषा श्रीमहाविद्या। य एवं वेद स शोकं तरति॥15॥
नमस्ते अस्तु भगवतिमातरस्मान् पाहि सर्वतः॥16॥
सैषाष्टौ वसवः। सैषैकादश रुद्राः।सैषा द्वादशादित्याः।
सैषा विश्वेदेवाःसोमपा असोमपाश्च।
सैषा यातुधाना असुरारक्षांसि पिशाचा यक्षाः सिद्धाः।
सैषा सत्त्वरजस्तमांसि।सैषा ब्रह्मविष्णुरुद्ररूपिणी।
सैषा प्रजापतीन्द्रमनवः।सैषा ग्रहनक्षत्रज्योतींषि।
कलाकाष्ठादिकालरूपिणी।तामहं प्रणौमि नित्यम्॥
पापापहारिणीं देवीं भुक्तिमुक्तिप्रदायिनीम्।
अनन्तां विजयां शुद्धांशरण्यां शिवदां शिवाम्॥17॥
वियदीकारसंयुक्तं वीतिहोत्रसमन्वितम्।
अर्धेन्दुलसितं देव्याबीजं सर्वार्थसाधकम्॥18॥
एवमेकाक्षरं ब्रह्मयतयः शुद्धचेतसः।
ध्यायन्ति परमानन्दमया ज्ञानाम्बुराशयः॥19॥
वाङ्माया ब्रह्मसूस्तस्मात्षष्ठं वक्त्रसमन्वितम्।
सूर्योऽवामश्रोत्रबिन्दुसंयुक्तष्टात्तृतीयकः।
नारायणेन सम्मिश्रोवायुश्चाधरयुक् ततः।
विच्चे नवार्णकोऽर्णःस्यान्महदानन्ददायकः॥20॥
हृत्पुण्डरीकमध्यस्थां प्रातःसूर्यसमप्रभाम्।
पाशाङ्कुशधरां सौम्यां वरदाभयहस्तकाम्।
त्रिनेत्रां रक्तवसनां भक्तकामदुघां भजे॥21॥
नमामि त्वां महादेवींमहाभयविनाशिनीम्।
महादुर्गप्रशमनीं महाकारुण्यरूपिणीम्॥22॥
यस्याः स्वरूपं ब्रह्मादयो नजानन्ति तस्मादुच्यते अज्ञेया।
यस्या अन्तो न लभ्यतेतस्मादुच्यते अनन्ता।
यस्या लक्ष्यं नोपलक्ष्यतेतस्मादुच्यते अलक्ष्या।
यस्या जननं नोपलभ्यतेतस्मादुच्यते अजा।
एकैव सर्वत्र वर्ततेतस्मादुच्यते एका।
एकैव विश्वरूपिणीतस्मादुच्यते नैका।
अत एवोच्यतेअज्ञेयानन्तालक्ष्याजैका नैकेति॥23॥
मन्त्राणां मातृका देवीशब्दानां ज्ञानरूपिणी।
ज्ञानानां चिन्मयातीता शून्यानां शून्यसाक्षिणी।
यस्याः परतरं नास्तिसैषा दुर्गा प्रकीर्तिता॥24॥
तां दुर्गां दुर्गमां देवींदुराचारविघातिनीम्।
नमामि भवभीतोऽहंसंसारार्णवतारिणीम्॥25॥
इदमथर्वशीर्षं योऽधीते सपञ्चाथर्वशीर्षजपफलमाप्नोति। इदमथर्वशीर्षमज्ञात्वा योऽर्चांस्थापयति – शतलक्षं प्रजप्त्वापि सोऽर्चासिद्धिं न विन्दति।शतमष्टोत्तरं चास्य पुरश्चर्याविधिः स्मृतः।
दशवारं पठेद् यस्तुसद्यः पापैः प्रमुच्यते।
महादुर्गाणि तरतिमहादेव्याः प्रसादतः॥26॥
सायमधीयानो दिवसकृतं पापं नाशयति। प्रातरधीयानो रात्रिकृतं पापं नाशयति। सायं प्रातः प्रयुञ्जानो अपापो भवति। निशीथे तुरीयसन्ध्यायांजप्त्वा वाक्सिद्धिर्भवति। नूतनायां प्रतिमायां जप्त्वादेवतासांनिध्यं भवति। प्राणप्रतिष्ठायां जप्त्वाप्राणानां प्रतिष्ठा भवति। भौमाश्विन्यां महादेवीसंनिधौजप्त्वा महामृत्युं तरति।
स महामृत्युं तरति यएवं वेद। इत्युपनिषत्॥
॥ इति श्रीदेव्यथर्वशीर्षम् सम्पूर्णम् ॥
नोट : देव्यथर्वशीर्षम् स्तोत्रम् (Devi Atharvashirsh) के पाठ के बाद नर्वाण मंत्र का पाठ किया जाता है।