देवी कवच (Devi Kavacha) का पाठ करें और जाने इसका महात्म्य और प्रभाव

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दुर्गा सप्तशती (Durga Saptashati) के पाठ के क्रम से सबसे पहले देवी कवच का पाठ किया जाता है। फिर इसके बाद अर्गला स्तोत्रम (Argala Stotram) का पाठ किया जाता है। माँ दुर्गा का यह देवी कवच युद्ध में विजय दिलाने वाला, शत्रु से रक्षा करने वाला और विभिन्न रोगों एवं महामारी से बचाने वाला है। देवी कवच (Devi Kavacha) को धारण करने वाला मनुष्य अजेय हो जाता है। इस परम दुर्लभ कवच का पाठ करने से मनुष्य का हर प्रकार से कल्याण होता है। जानियें इस कल्याणकारी कवच का क्या महात्म्य है और इसका पाठ कैसे करना चाहिये।

Glory Of Devi Kavacha
देवी कवच का महात्म्य

देवी कवचम् (Devi Kavacha) माँ दुर्गा की कृपा का कवच है। इस कवच को धारण करने वाला हर आदि-व्याधि से सुरक्षित होता है। देवी कवच (Devi Kavacha) एक बहुत ही दुर्लभ, गुप्त और प्रभावशाली है। पुराणों के अनुसार संसार की रक्षा के लिये मार्कण्डेय ऋषि के द्वारा पूछने पर परमपिता ब्रह्मा जी ने उन्हे इस देवी कवच का ज्ञान दिया था। आज जब दुनिया में कई प्रकार की बीमारियाँ और महामारियाँ फैल रही है और उनसे लोगों की जान जा रही है। विभिन्न प्रकार की दुर्घटनाओं के कारण लोग अपनी जान गँवा रहे है। ऐसे में इस देवी कवच का पाठ लोगों के लिये बहुत ही लाभदायक सिद्धि होगा। मनुष्यों का इस लोक और परलोक में कल्याण करने वाला यह कवच बहुत ही चमत्कारी है। यह कवच देवताओं के लिये भी दुर्लभ है। इस कवच का विधि अनुसार पाठ करने से साधक को माँ दुर्गा की कृपा प्राप्त होती है और वो उसकी हर संकट से सुरक्षा करती है। देवी कवच (Devi Kavacha) को धारण करने अर्थात इसका पाठ करने से

  • मनुष्य सभी दिशाओं से सुरक्षित हो जाता है।
  • धनार्जन में सुलभता होती है। धन-समृद्धि में बढोत्तरी होती है। समस्त मनोकामनाए सिद्ध होती है।
  • अदालती मामलों में सफलता प्राप्त होती है। हर कार्यक्षेत्र में विजय मिलती है। साधक जिस भी वस्तु की कामना करता वो उसे निश्चय ही प्राप्त होती है।
  • जातक इस धरती के सभी सुख – ऐश्वर्य उसको प्राप्त होते है।
  • कवच से रक्षित मनुष्य निर्भय और अजेय हो जाता है। उसे कोई भी शत्रु पराजित नही कर सकता। वो हमेशा युद्ध विजयी होता है।
  • उसकी यश और कीर्ति चारों दिशाओं में फैलती है।
  • वो जातक समाज में मान-सम्मान का भागी होता है।
  • जातक निरोगी और दीर्धायु होता है।
  • उसे दैवी कृपा प्राप्त होती है।
  • समस्त आदी-व्याधियाँ नष्ट हो जाती हैं।
  • जातक सभी प्रकार के तंत्र-मंत्र और आभिचारिक प्रयोगों से सुरक्षित हो जाता है।
  • भूत-पिशाच और कोई भी दुष्ट शक्ति उसके निकट भी नही आ सकती और उसका कोई अहित नही कर सकती।
  • साधक तेजस्वी होता है।
  • वंश में वृद्धि होती है। संतान सुख की प्राप्ति होती है।
  • साधक इस धरती के सभी सुखों को भोग कर अंतकाल में मोक्ष को प्राप्त करता है।

How and When To Recite Devi Kavacha?
कब और कैसे देवी कवच का पाठ करें?

इस परम दुर्लभ देवी कवच का पाठ करते समय पवित्रता का पूरा ध्यान रखें। प्रात:काल या संंध्या के समय स्नानादि नित्यक्रिया से निवृत्त होकर स्वच्छ वस्त्र धारण करें। इसके बाद पवित्र मन और श्रद्धा-भक्ति से साथ पूजा स्थान पर बैठकर देवी कवच का पाठ करें। शास्त्रों के अनुसार दिन में तीन बार (सुबह, दोपहर और संध्या के समय) देवी कवच का पाठ करने से यह कवच सिद्ध हो जाता है और साधक को मनोवांछित फलों की प्राप्ति होती है। प्रकट नवरात्रि और गुप्त नवरात्रि दोनों नवरात्रि में इस कवच का पाठ करने से कई गुणा पुण्य मिलता है।

Devi Kavacha Lyrics
देवी कवच

॥ अथ देव्याः कवचम् ॥

ॐ अस्य श्री चण्डीकवचस्य ब्रह्मा ऋषिः । अनुष्टुप् छन्दः । चामुण्डा देवता ।
अङ्गन्यासोक्तमातरो बीजम् । दिग्बन्ध देवतास्तत्त्वम् ।
श्रीजगदम्बाप्रीत्यर्थे सप्तशती पाठाङ्गत्वेन जपे विनियोगः ॥

॥ ॐ नमश्चण्डिकायै ॥

मार्कण्डेय उवाच

ॐ यद्गुह्यं परमं लोके सर्वरक्षाकरं नृणाम् ।
यन्न कस्यचिदाख्यातं तन्मे ब्रूहि पितामह ॥ १॥

ब्रह्मोवाच

अस्ति गुह्यतमं विप्र सर्वभूतोपकारकम् ।
देव्यास्तु कवचं पुण्यं तच्छृणुष्व महामुने ॥ २॥

प्रथमं शैलपुत्री च द्वितीयं ब्रह्मचारिणी ।
तृतीयं चन्द्रघण्टेति कूष्माण्डेति चतुर्थकम् ॥ ३॥

पञ्चमं स्कन्दमातेति षष्ठं कात्यायनीति च ।
सप्तमं कालरात्रीति महागौरीति चाष्टमम् ॥ ४॥

नवमं सिद्धिदात्री च नवदुर्गाः प्रकीर्तिताः ।
उक्तान्येतानि नामानि ब्रह्मणैव महात्मना ॥ ५॥

अग्निना दह्यमानस्तु शत्रुमध्ये गतो रणे ।
विषमे दुर्गमे चैव भयार्त्ताः शरणं गताः ॥ ६॥

न तेषां जायते किंचिदशुभं रणसंकटे ।
नापदं तस्य पश्यामि शोकदुःखभयं न हि ॥ ७॥

यैस्तु भक्त्या स्मृता नूनं तेषां वृद्धिः प्रजायते ।
ये त्वां स्मरन्ति देवेशि रक्षसे तान्न संशयः ॥ ८॥

प्रेतसंस्था तु चामुण्डा वाराही महिषासना ।
ऐन्द्री गजसमारूढा वैष्णवी गरुडासना ॥ ९॥

माहेश्वरी वृषारूढा कौमारी शिखिवाहना ।
लक्ष्मीः पद्मासना देवी पद्महस्ता हरिप्रिया ॥ १०॥

श्वेतरूपधरा देवी ईश्वरी वृषवाहना ।
ब्राह्मी हंससमारूढा सर्वाभरणभूषिता ॥ ११॥

इत्येता मातरः सर्वाः सर्वयोगसमन्विताः ।
नानाभरणशोभाढ्या नानारत्नोपशोभिताः ॥ १२॥

दृश्यन्ते रथमारूढा देव्यः क्रोधसमाकुलाः ।
शङ्खं चक्रं गदां शक्तिं हलं च मुसलायुधम् ॥ १३॥

खेटकं तोमरं चैव परशुं पाशमेव च ।
कुन्तायुधं त्रिशूलं च शार्ङ्गमायुधमुत्तमम् ॥ १४॥

दैत्यानां देहनाशाय भक्तानामभयाय च ।
धारयन्त्यायुधानीत्थं देवानां च हिताय वै ॥ १५॥

नमस्तेऽस्तु महारौद्रे महाघोरपराक्रमे ।
महाबले महोत्साहे महाभयविनाशिनि ॥ १६॥

त्राहि मां देवि दुष्प्रेक्ष्ये शत्रूणां भयवर्द्धिनि ।
प्राच्यां रक्षतु मामैन्द्री आग्नेय्यामग्निदेवता ॥ १७॥

दक्षिणेऽवतु वाराही नैरृत्यां खड्गधारिणी ।
प्रतीच्यां वारुणी रक्षेद्वायव्यां मृगवाहिनी ॥ १८॥

उदीच्यां पातु कौमारी ऐशान्यां शूलधारिणी ।
ऊर्ध्वं ब्रह्माणि मे रक्षेदधस्ताद्वैष्णवी तथा ॥ १९॥

एवं दश दिशो रक्षेच्चामुण्डा शववाहना ।
जया मे चाग्रतः पातु विजया पातु पृष्ठतः ॥ २०॥

अजिता वामपार्श्वे तु दक्षिणे चापराजिता ।
शिखामुद्योतिनी रक्षेदुमा मूर्ध्नि व्यवस्थिता ॥ २१॥

मालाधरी ललाटे च भ्रुवौ रक्षेद्यशस्विनी ।
त्रिनेत्रा च भ्रुवोर्मध्ये यमघण्टा च नासिके ॥ २२॥

शङ्खिनी चक्षुषोर्मध्ये श्रोत्रयोर्द्वारवासिनी ।
कपोलौ कालिका रक्षेत्कर्णमूले तु शाङ्करी ॥ २३॥

नासिकायां सुगन्धा च उत्तरोष्ठे च चर्चिका ।
अधरे चामृतकला जिह्वायां च सरस्वती ॥ २४॥

दन्तान् रक्षतु कौमारी कण्ठदेशे तु चण्डिका ।
घण्टिकां चित्रघण्टा च महामाया च तालुके ॥ २५॥

कामाक्षी चिबुकं रक्षेद्वाचं मे सर्वमङ्गला ।
ग्रीवायां भद्रकाली च पृष्ठवंशे धनुर्धरी ॥ २६॥

नीलग्रीवा बहिःकण्ठे नलिकां नलकूबरी ।
स्कन्धयोः खड्गिनी रक्षेद्बाहू मे वज्रधारिणी ॥ २७॥

हस्तयोर्दण्डिनी रक्षेदम्बिका चाङ्गुलीषु च ।
नखाञ्छूलेश्वरी रक्षेत्कुक्षौ रक्षेत्कुलेश्वरी ॥ २८॥

स्तनौ रक्षेन्महादेवी मनःशोकविनाशिनी ।
हृदये ललिता देवी उदरे शूलधारिणी ॥ २९॥

नाभौ च कामिनी रक्षेद्गुह्यं गुह्येश्वरी तथा ।
पूतना कामिका मेढ्रं गुदे महिषवाहिनी ॥ ३०॥

कट्यां भगवती रक्षेज्जानुनी विन्ध्यवासिनी ।
जङ्घे महाबला रक्षेत्सर्वकामप्रदायिनी ॥ ३१॥

गुल्फयोर्नारसिंही च पादपृष्ठे तु तैजसी ।
पादाङ्गुलीषु श्री रक्षेत्पादाधस्तलवासिनी ॥ ३२॥

नखान् दंष्ट्राकराली च केशांश्चैवोर्ध्वकेशिनी ।
रोमकूपेषु कौबेरी त्वचं वागीश्वरी तथा ॥ ३३॥

रक्तमज्जावसामांसान्यस्थिमेदांसि पार्वती ।
अन्त्राणि कालरात्रिश्च पित्तं च मुकुटेश्वरी ॥ ३४॥

पद्मावती पद्मकोशे कफे चूडामणिस्तथा ।
ज्वालामुखी नखज्वालामभेद्या सर्वसन्धिषु ॥ ३५॥

शुक्रं ब्रह्माणि मे रक्षेच्छायां छत्रेश्वरी तथा ।
अहंकारं मनो बुद्धिं रक्षेन्मे धर्मधारिणी ॥ ३६॥

प्राणापानौ तथा व्यानमुदानं च समानकम् ।
वज्रहस्ता च मे रक्षेत्प्राणं कल्याणशोभना ॥ ३७॥

रसे रूपे च गन्धे च शब्दे स्पर्शे च योगिनी ।
सत्त्वं रजस्तमश्चैव रक्षेन्नारायणी सदा ॥ ३८॥

आयू रक्षतु वाराही धर्मं रक्षतु वैष्णवी ।
यशः कीर्तिं च लक्ष्मीं च धनं विद्यां च चक्रिणी ॥ ३९॥

गोत्रमिन्द्राणि मे रक्षेत्पशून्मे रक्ष चण्डिके ।
पुत्रान् रक्षेन्महालक्ष्मीर्भार्यां रक्षतु भैरवी ॥ ४०॥

पन्थानं सुपथा रक्षेन्मार्गं क्षेमकरी तथा ।
राजद्वारे महालक्ष्मीर्विजया सर्वतः स्थिता ॥ ४१॥

रक्षाहीनं तु यत्स्थानं वर्जितं कवचेन तु ।
तत्सर्वं रक्ष मे देवि जयन्ती पापनाशिनी ॥ ४२॥

पदमेकं न गच्छेत्तु यदीच्छेच्छुभमात्मनः ।
कवचेनावृतो नित्यं यत्र यत्रैव गच्छति ॥ ४३॥

तत्र तत्रार्थलाभश्च विजयः सार्वकामिकः ।
यं यं चिन्तयते कामं तं तं प्राप्नोति निश्चितम् ।
परमैश्वर्यमतुलं प्राप्स्यते भूतले पुमान् ॥ ४४॥

निर्भयो जायते मर्त्यः संग्रामेष्वपराजितः ।
त्रैलोक्ये तु भवेत्पूज्यः कवचेनावृतः पुमान् ॥ ४५॥

इदं तु देव्याः कवचं देवानामपि दुर्लभम् ।
यः पठेत्प्रयतो नित्यं त्रिसन्ध्यं श्रद्धयान्वितः ॥ ४६॥

दैवी कला भवेत्तस्य त्रैलोक्येष्वपराजितः ।
जीवेद्वर्षशतं साग्रमपमृत्युविवर्जितः ॥ ४७॥

नश्यन्ति व्याधयः सर्वे लूताविस्फोटकादयः ।
स्थावरं जङ्गमं चैव कृत्रिमं चापि यद्विषम् ॥ ४८॥

अभिचाराणि सर्वाणि मन्त्रयन्त्राणि भूतले ।
भूचराः खेचराश्चैव जलजाश्चौपदेशिकाः ॥ ४९॥

सहजा कुलजा माला डाकिनी शाकिनी तथा ।
अन्तरिक्षचरा घोरा डाकिन्यश्च महाबलाः ॥ ५०॥

ग्रहभूतपिशाचाश्च यक्षगन्धर्वराक्षसाः ।
ब्रह्मराक्षसवेतालाः कुष्माण्डा भैरवादयः ॥ ५१॥

नश्यन्ति दर्शनात्तस्य कवचे हृदि संस्थिते ।
मानोन्नतिर्भवेद्राज्ञस्तेजोवृद्धिकरं परम् ॥ ५२॥

यशसा वर्धते सोऽपि कीर्तिमण्डितभूतले ।
जपेत्सप्तशतीं चण्डीं कृत्वा तु कवचं पुरा ॥ ५३॥

यावद्भूमण्डलं धत्ते सशैलवनकाननम् ।
तावत्तिष्ठति मेदिन्यां सन्ततिः पुत्रपौत्रिकी ॥ ५४॥

देहान्ते परमं स्थानं यत्सुरैरपि दुर्लभम् ।
प्राप्नोति पुरुषो नित्यं महामाया प्रसादतः ॥ ५५॥

लभते परमं रूपं शिवेन सह मोदते ॥ ॐ ॥ ५६॥

इति देव्या: कवचं सपूर्णम् ।

नोट : देवी महात्मय (दुर्गा सप्तशती) के पाठ के क्रम में देवी कवच के पाठ के बाद अर्गला स्तोत्रम् का पाठ किया जाता है।